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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


माणिक कुछ नहीं बोले। उनकी आँखों में एक करुण व्यथा झलक आई और चुपचाप बैठे रहे। आँधी आ गई थी और मेज के नीचे सिनेमा के दो आधे फटे हुए टिकट आँधी की वजह से तमाम कमरे में घायल तितलियों के जोड़े की तरह इधर-उधर उड़ कर दीवारों से टकरा रहे थे।

माणिक के पाँवों पर टप से एक गरम आँसू चू पड़ा तो उन्होंने चौंक कर देखा लिली की पलकों में आँसू छलक रहे थे। उन्होंने हाथ पकड़ कर लिली को पास खींच लिया और उसे सामने बिठा कर, उसके दो नन्हे उजले कबूतरों जैसे पाँवों पर उँगली से धारियाँ खींचते हुए बोले, 'छि:! यह सब रोना-धोना हमारी लिली को शोभा नहीं देता। यह सब कमजोरी है, मन का मोह और कुछ नहीं। तुम जानती हो कि मेरे मन में कभी तुम्हारे लिए मोह नहीं रहा, तुम्हारे मन में मेरे लिए कभी अधिकार की भावना नहीं रही। अगर हम दोनों जीवन में एक दूसरे के निकट आए भी तो इसलिए कि हमारी अधूरी आत्माएँ एक दूसरे को पूर्ण बनाएँ, एक दूसरे को बल दें, प्रकाश दें, प्रेरणा दें। और दुनिया की कोई भी ताकत कभी हमसे हमारी इस पवित्रता को छीन नहीं सकती। मैं जानता हूँ कि तमाम जीवन मैं जहाँ कहीं भी रहूँगा, जिन परिस्थितियों में भी रहूँगा, तुम्हारा प्यार मुझे बल देता रहेगा फिर तुममें इतनी अस्थिरता क्यों आ रही है? इसका मतलब यह है कि पता नहीं मुझमें कौन-सी कमी है कि तुम्हें वह आस्था नहीं दे पा रहा हूँ!'

लिली ने आँसू डूबी निगाहें उठाईं और कायरता से माणिक की ओर देखा जिसका अर्थ था - 'ऐसा न कहो, मेरे जीवन में, मेरे व्यक्तित्व में जो कुछ है तुम्हारा ही तो दिया हुआ है।' पर लिली ने यह शब्दों से नहीं कहा, निगाहों से कह दिया।

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