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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


'कुछ नहीं!' लड़की ने हँसने का प्रयास करते हुए कहा, मगर आँखें डबडबा आईं और वह माणिक मुल्ला के पाँवों के पास बैठ गई।

माणिक ने उसके बुंदों में उलझी एक सूखी लट को सुलझाते हुए कहा, 'तो नहीं बताओगी?'

'हम कभी छिपाते हैं तुमसे कोई बात!'

'नहीं, अब तक तो नहीं छिपाती थी, आज से छिपाने लगी हो!'

'नहीं, कोई बात नहीं। सच मानो!' लड़की ने, जिसका नाम लीला था लिली नाम से पुकारी जाती थी, माणिक की कमीज के काँच के बटन खोलते और बंद करते हुए कहा।

'अच्छा मत बताओ! हम भी अब तुम्हें कुछ नहीं बताएँगे।' माणिक ने उठने का उपक्रम करते हुए कहा।

'तो चले कहाँ -' वह माणिक के कंधे पर झुक गई - 'बताती तो हूँ।'

'तो बताओ!'

लिली थोड़ा झेंप गई और फिर उसने माणिक की हथेली अपनी सूजी पलकों पर रख कर कहा, 'हुआ ऐसा कि आज देवदास देखने गए थे। कम्मो भी साथ थी। खैर, उसकी समझ में आई नहीं। मुझे पता नहीं कैसा लगने लगा। माणिक, क्या होगा, बताओ? अभी तो एक दिन तुम नहीं आते हो तो न खाना अच्छा लगता है, न पढ़ना। फिर महीनों-महीनों तुम्हें नहीं देख पाएँगे। सच, वैसे चाहे जितना हँसते रहो, बोलते रहो, पर जहाँ इस बात का ध्यान आया कि मन को जैसे पाला मार जाता है।'

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