ई-पुस्तकें >> सूरज का सातवाँ घोड़ा सूरज का सातवाँ घोड़ाधर्मवीर भारती
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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।
थोड़ी देर बाद वह उठी। उसकी आँखों के नीचे एक हलकी फालसाई छाँह थी जो सूज आई थी। उसकी चाल हंस की थी, पर ऐसे हंस की जो मानसरोवर से न जाने कितने दिनों के लिए विदा ले रहा हो। उसने एक गहरी साँस ली और लगा जैसे हवाओं में केसर के डोरे बिखर गए हों। वह उठी और खिड़की के पास जा कर बैठ गई। हवाओं से जार्जेट के परदे उठ कर उसे गुदगुदा जाते थे, कभी कानों के पास, कभी होठों के पास, कभी... खैर!
बाहर सूरज की आखरी किरणें नीम और पीपल के शिखरों पर सुनहली उदासी बिखेर रही थीं। क्षितिज के पास एक गहरी जामुनी पर्त जमी थी, जिस पर गुलाब बिखरे हुए थे और उसके बाद हल्की पीली आँधी की आभा लहरा रही थी।
'आँधी आनेवाली है बेटी! चलो खाना खा लो!' माँ ने दरवाजे पर से कहा। लड़की कुछ नहीं बोली, सिर्फ सिर हिला दिया। माँ कुछ नहीं बोली, इसरार भी नहीं किया। माँ की अकेली लड़की थी, घर-भर में माँ और बेटी ही थीं, बेटी समझो तो बेटा समझो तो! बेटी की बात काटने की हिम्मत किसी में किसी में नहीं थी। माँ थोड़ी देर चुपचाप खड़ी रही, चली गई। लड़की सूनी-सूनी आँखों से चुपचाप जामुनी रंग के घिरते हुए बादलों को देखती रही और उन पर धधकते हुए गुलाबों को और उन पर घिरती हुई आँधी को।
शाम ने धुँधलके का सुरमई दुपट्टा ओढ़ लिया। वह चुपचाप वहीं बैठी रही, बेले की बनी हुई कला-प्रतिमा की तरह, निगाहों में रह-रह कर नरगिस, उदास और लजीली नरगिस झूम जाती थी।
'कहिए जनाब!' माणिक ने प्रवेश किया तो वह उठी और चुपचाप लाइट ऑन कर दी। माणिक मुल्ला ने उसकी खिन्न मन:स्थिति, उसका अश्रुसिक्त मौन देखा तो रुक गए और गंभीर हो कर बोले, 'क्या हुआ? लिली! लिली!'
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