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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


ओंकार, श्याम और प्रकाश भी तब तक आ गए थे। और हम सब लोग मन-ही-मन इंतजार कर रहे थे कि माणिक मुल्ला कब अपनी कहानी शुरू करें, पर उनकी खोई-सी मन:स्थिति देख कर हम लोगों की हिम्मत नहीं पड़ रही थी।

इतने में माणिक मुल्ला खुद हम लोगों के मन की बात समझ गए और सहसा अपने दिवास्वप्नों की दुनिया से लौटते हुए फीकी हँसी हँस कर बोले, 'आज मैं तुम लोगों को एक ऐसी लड़की की कहानी सुनाऊँगा, जो ऐसे बादलों के दिन मुझे बार-बार याद आ जाती है। अजब थी वह लड़की!'

इसके बाद माणिक मुल्ला ने जब कहानी प्रारंभ की तभी मैंने टोका और उनको याद दिलाई कि उनकी कहानी में समय का विस्तार इतना सीमाहीन था कि घटनाओं का क्रम बहुत तेजी से चलता गया और वे विवरण में इतनी तेजी से चले कि वैयक्तिक मनोविश्लेषण और मन:स्थिति निरूपण पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाए। माणिक मुल्ला ने पिछली कहानी की इस कमी को स्वीकार किया, लेकिन लगता है अंदर-अंदर उन्हें कुछ लगा क्योंकि उन्होंने चिढ़ कर बहुत कड़वे स्वर में कहा, 'अच्छा लो, आज की कहानी का घटनाकाल केवल चौबीस घंटे में ही सीमित रहेगा - 29 जुलाई, सन 19...को सायंकाल छह बजे से 30 जुलाई सायंकाल छह बजे तक, और उसके बाद उन्होंने कहानी प्रारंभ की : (कहानी कहने के पहले मुझसे बोले, 'शैली में तुम्हारी झलक आ जाए तो क्षमा करना।')

खिड़की पर झूलते हुए जार्जेट के हवा से भी हल्के परदों को चूमते हुए शाम के सूरज की उदास पीली किरणों ने झाँक कर उस लड़की को देखा जो तकिए में मुँह छिपाए सिसक रही थी। उसकी रूखी अलकें खारे आँसू से धुले गालों को छू कर सिहर उठती थीं। चंपे की कलियों-सी उसकी लंबी पतली कलात्मक उँगलियाँ, सिसकियों-से काँप-काँप उठनेवाला उसका सोनजुही-सा तन, उसके गुलाब की सूखी पाँखुरियों-से होठ, और कमरे का उदास वातावरण; पता नहीं कौन-सा वह दर्द था जिसकी उदास उँगलियाँ रह-रह कर उसके व्यक्तित्व के मृणाल-तंतुओं के संगीत को झकझोर रही थीं।

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