ई-पुस्तकें >> सूरज का सातवाँ घोड़ा सूरज का सातवाँ घोड़ाधर्मवीर भारती
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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।
मैं उनकी बातों से पूर्णतया सहमत था पर लिख चाहे थोड़ा-बहुत लूँ, मुझे उन दिनों अच्छी हिंदी बोलने का इतना अभ्यास नहीं था अत: उनकी उदासी से सहमति प्रकट करने के लिए मैं चुपचाप मुँह लटकाए बैठा रहा था। बिलकुल उन्हीं की तरह मुँह लटकाए हुए बादलों की ओर देखता रहा और नीचे पाँव झुलाता रहा। माणिक मुल्ला कहते गए - 'अब यही प्रेम की बात लो। यह सच है कि प्रेम आर्थिक स्थितियों से अनुशासित होता है, लेकिन मैंने जो जोश में कह दिया था कि प्रेम आर्थिक निर्भरता का ही दूसरा नाम है, यह केवल आंशिक सत्य है। इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि प्यार - 'यहाँ माणिक मुल्ला रुक गए और मेरी ओर देख कर बोले, 'क्षमा करना, तुम्हारी अभ्यस्त शैली में कहूँ तो इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि प्यार आत्मा की गहराइयों में सोये हुए सौंदर्य के संगीत को जगा देता है, हममें अजब-सी पवित्रता, नैतिक निष्ठा और प्रकाश भर देता है आदि-आदि। लेकिन...'
'लेकिन क्या?' मैंने पूछा।
'लेकिन हम सब परंपराओं, सामाजिक परिस्थितियों, झूठे बंधनों में इस तरह कसे हुए हैं कि उसे सामाजिक स्तर ग्रहण नहीं करा पाते, उसके लिए संघर्ष नहीं कर पाते और बाद में अपनी कायरता और विवशताओं पर सुनहरा पानी फेर कर उसे चमकाने की कोशिश करते रहते हैं। इस रूमानी प्रेम का महत्व है, पर मुसीबत यह है कि वह कच्चे मन का प्यार होता है, उसमें सपने, इंद्रधनुष और फूल तो काफी मिकदार में होते हैं पर वह साहस और परिपक्वता नहीं होती जो इन सपनों और फूलों को स्वस्थ सामाजिक संबंध में बदल सके। नतीजा यह होता है कि थोड़े दिन बाद यह सब मन से उसी तरह गायब हो जाता है जैसे बादल की छाँह। आखिर हम हवा में तो नहीं रहते हैं और जो भी भावना हमारे सामाजिक जीवन की खाद नहीं बन पाती, जिंदगी उसे झाड़-झंखाड़ की तरह उखाड़ फेंकती है।'
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