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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


'क्या?' मैंने पूछा।

'पहली तो यह कि तुम्हारा हाजमा ठीक नहीं है, दूसरे यह कि तुमने डाण्टे की 'डिवाइना कामेडिया' पढ़ी है जिसमें नायक को स्वर्ग में नायिका मिलती है और उसे ईश्वर के सिंहासन तक ले जाती है।' जब मैंने झेंप कर यह स्वीकार किया कि दोनों बातें बिलकुल सच हैं तो फिर वे चुप हो गए और उसी तरह खिड़की की राह बादलों की ओर देख कर पाँव हिलाने लगे।

थोड़ी देर बाद बोले, 'पता नहीं तुम लोगों को कैसा लगता है, मुझे तो बादलों को देख कर वैसा लगता है जैसे उस घर को देख कर लगता है जिसमें हमने अपना हँसी-खुशी से बचपन बिताया हो और जिसे छोड़ कर हम पता नहीं कहाँ-कहाँ घूमे हों और भूल कर फिर उसी मकान के सामने बरसों बाद आ पहुँचे हों।'

जब मैंने स्वीकार किया कि मेरे मन में भी यही भावना होती है तो और भी उत्साह में भर कर बोले, 'देखो, अगर जिंदगी में फूल न होते, बादल न होते, पवित्रता न होती, प्रकाश न होता, सिर्फ अँधेरा होता, कीचड़ होता, गंदगी होती तो कितना अच्छा होता! हम सब उसमें कीड़े की तरह बिलबिलाते और मर जाते, कभी अंत:करण में किसी तरह की छटपटाहट न होती। लेकिन बड़ा अभागा होता है वह दिन जिस दिन हमारी आत्मा पवित्रता की एक झलक पा लेती है, रोशनी का एक कण पा लेती है क्योंकि उसके बाद सदियों तक अँधेरे में कैद रहने पर भी रोशनी की प्यास उसमें मर नहीं पाती, उसे तड़पाती रहती है। वह अँधेरे से समझौता कर ले पर उसे चैन कभी नहीं मिलती।'

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