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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।

चौथी दोपहर


मालवा की युवरानी देवसेना की कहानी


आँख लग जाने के थोड़ी देर बाद सहसा उमस चीरते हुए हवा का एक झोंका आया और फिर तो इतने तेज झकोरे आने लगे कि नीम की शाखें झूम उठीं। थोड़ी देर में तारों का एक काला परदा छा गया। हवाएँ अपने साथ बादल ले आई थीं। सुबह हम लोग बहुत देर तक सोए क्योंकि हवा चल रही थी और धूप का कोई सवाल नहीं था।

पता नहीं देर तक सोने का नतीजा हो या बादलों का, क्योंकि कालिदास ने भी कहा है -'रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च...' पर मेरा मन बहुत उदास-सा था और मैं लेट कर कोई किताब पढ़ने लगा, शायद 'स्कंदगुप्त' जिसमें अंत में नायिका देवसेना राग विहाग में 'आह वेदना मिली विदाई' गाती है और घुटने टेक कर विदा माँगती है - इस जीवन के देवता और उस जन्म के प्राप्य क्षमा! और उसके बाद अनंत विरह के साथ परदा गिर जाता है।

उसको पढ़ने से मेरा मन और भी उदास हो गया और मैंने सोचा चलो माणिक मुल्ला के यहाँ ही चला जाए। मैं पहुँचा तो देखा कि माणिक मुल्ला चुपचाप बैठे खिड़की की राह बादलों की ओर देख रहे हैं और कुरसी से लटकाए हुए दोनों पाँव धीरे-धीरे हिला रहे हैं। मैं समझ गया कि माणिक मुल्ला के मन में कोई बहुत पुरानी व्यथा जाग गई है क्योंकि ये लक्षण उसी बीमारी के होते हैं। ऐसी हालत में साधारणतया माणिक-जैसे लोगों की दो प्रतिक्रियाएँ होती हैं। अगर कोई उनसे भावुकता की बात करे तो वे फौरन उसकी खिल्ली उड़ाएँगे, पर जब वह चुप हो जाएगा तो धीरे-धीरे खुद वैसी ही बातें छेड़ देंगे। यही माणिक ने भी किया। जब मैंने उनसे कहा कि मेरा मन बहुत उदास है तो वे हँसे और मैंने जब कहा कि कल रात के सपने ने मेरे मन पर बहुत असर डाला है तो वे और भी हँसे और बोले, 'उस सपने से तो दो ही बातें मालूम होती हैं।'

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