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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


माणिक मुल्ला को बहुत आश्चर्य हुआ उस अरगंडी को छू कर जो कलकत्ते से आई थी, असली जरमनी की थी और जिस पर छोटे-छोटे फूल बने थे।

माणिक मुल्ला जब गाय को टिक्की खिला चुके तो जमुना ने बेसन के नमकीन पुए निकाले। मगर कहा, 'पहले बैठ जाओ तब खिलाएँगे।' माणिक चुपचाप चलने लगे। जमुना ने छोटी-सी बैटरी जला दी पर माणिक मारे डर के काँप रहे थे। उन्हें हर क्षण यही लगता था कि भूसे में से अब साँप निकला, अब बिच्छू निकला, अब काँतर निकली। रुँधते गले से बोले, 'हम खाएँगे नहीं। हमें जाने दो।'

जमुना बोली, 'कैथे की चटनी भी है।' अब माणिक मुल्ला मजबूर हो गए। कैथा उन्हें विशेष प्रिय था। अंत में साँप-बिच्छू के भय का निरोध करके किसी तरह वे बैठ गए। फिर वही आलम कि जमुना को माणिक चुपचाप देखें और माणिक को जमुना और गाय इन दोनों को। जमुना बोली, 'कुछ बात करो, माणिक।' जमुना चाहती थी माणिक कुछ उसके कपड़े के बारे में बातें करे, पर जब माणिक नहीं समझे तो वह खुद बोली, 'माणिक, यह कपड़ा अच्छा है?' 'बहुत अच्छा है जमुना!' माणिक बोले। 'पर देखो, तन्ना है न, वही अपना तन्ना। उसी के साथ जब बातचीत चल रही थी तभी चाचा कलकत्ते से ये सब कपड़े लाए थे। पाँच सौ रुपए के कपड़े थे। पंचम बनिया से एक सेट गिरवी रख के कपड़े लाये थे, फिर बात टूट गई। अभी तो मैं उसी के यहाँ गई थी। अकेले मन घबराता है। लेकिन अब तो तन्ना बात भी नहीं करता। इसीलिए कपड़े भी बदले थे।'

'बात क्यों टूट गई जमुना?'

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