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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


एक ही पुआ खाने के बाद माणिक मुल्ला उठने लगे तो जमुना बोली, 'और खाओ।' तो माणिक मुल्ला ने उसे बताया कि उन्हें मीठे पुए अच्छे नहीं लगते, उन्हें बेसन के नमकीन पुए अच्छे लगते हैं।

'अच्छा कल तुम्हारे लिए बेसन के नमकीन पुए बना रखूँगी। कल आओगे? कथा तो सात रोज तक होगी।' माणिक ने संतोष की साँस ली। उठ खड़े हुए। लौट कर आए तो भाभी सो रही थीं। माणिक मुल्ला चुपचाप गऊमाता का ध्यान करते हुए सो गए।

दूसरे दिन माणिक मुल्ला ने चलने की कोशिश की, क्योंकि उन्हें जाने में डर भी लगता था और वे जाना भी चाहते थे। और न जाने कौन-सी चीज थी जो अंदर-ही-अंदर उनसे कहती थी, 'माणिक! यह बहुत बुरी बात है। जमुना अच्छी लड़की नहीं!' और उनके ही अंदर कोई दूसरी चीज थी जो कहती थी, 'चलो माणिक! तुम्हारा क्या बिगड़ता है। चलो देखें तो क्या है?' और इन दोनों से बड़ी चीज थी नमकीन बेसन का पुआ जिसके लिए नासमझ माणिक मुल्ला अपना लोक-परलोक दोनों बिगाड़ने के लिए तैयार थे।

उस दिन माणिक मुल्ला गए तो जमुना ने धानी रंग की वाइल की साड़ी पहनी थी, अरगंडी की पतली ब्लाउज पहनी थी, दो चोटियाँ की थीं, माथे पर चमकती हुई बिंदी लगाई थी। माणिक अकसर देखते थे कि जब लड़कियाँ स्कूल जाती थीं तो ऐसे सज-धज कर जाती थीं, घर में तो मैली धोती पहन कर फर्श पर बैठ कर बातें किया करती थीं, इसलिए उन्हें बड़ा ताज्जुब हुआ। बोले, 'जमुना, क्या अभी स्कूल से लौट रही हो?'

'स्कूल? स्कूल जाना तो माँ ने चार साल से छुड़ा दिया। घर में बैठी-बैठी या तो कहानियाँ पढ़ती हूँ या फिर सोती हूँ।' माणिक मुल्ला की समझ में नहीं आया कि जब दिन-भर सोना ही है तो इस सज-धज की क्या जरूरत है। माणिक मुल्ला आश्चर्य से मुँह खोले देखते रहे कि जमुना बोली, 'आँख फाड़-फाड़ कर क्या देख रहे हो! असली जरमनी की अरगंडी है। चाचा कलकत्ते से लाये थे, ब्याह के लिए रखी थी। ये देखो छोटे-छोटे फूल भी बने हैं।'

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