ई-पुस्तकें >> सूक्तियाँ एवं सुभाषित सूक्तियाँ एवं सुभाषितस्वामी विवेकानन्द
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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
119. स्वामीजी मानते थे कि पुराणों की रचना उदात्त भावों को जनता तक पहुँचाने के निमित्त हिन्दू धर्म का प्रयास है। भारत में केवल एक ही व्यक्ति, कृष्ण की बुद्धि ऐसी थी, जिसने इस आवश्यकता को पहले ही समझा था। सम्भवत: वे मनुष्यों से सर्वश्रेष्ठ थे।
स्वामीजी ने कहा, ''इस प्रकार एक धर्म की सृष्टि हुई, जिसका लक्ष्य जीवन की स्थिति और आनन्द के प्रतीक विष्णु की उपासना है, जो ईश्वरानुभूति की प्राप्ति का साधन है। हमारा अन्तिम धार्मिक आन्दोलन चैतन्यसम्प्रदाय - तुम्हें याद होगा, आनन्द उपभोग के लिए था। साथ ही जैन धर्म दूसरी चरम सीमा है - आत्म- यातना के द्वारा शरीर को धीरे-धीरे नष्ट कर देना। इसीलिए तुम देखोगे कि बौद्ध धर्म सुधरा हुआ जैन धर्म ही है और बुद्ध के द्वारा पाँच तपस्वियों का साथ छोड़ देने का वास्तविक अर्थ यही है। भारत में प्रत्येक युग में सम्प्रदायों का एक चक्र विद्यमान है, जो आत्म-यातना की चरम सीमा से लेकर असंयम की चरम सीमा तक शारीरिक साधना के प्रत्येक स्तर को प्रस्तुत करता है, और उसी अवधि में एक दार्शनिक चक्र भी सदैव विकसित होता है, जो ईश्वर-साक्षात्कार को इन्द्रिय-भोग से लेकर इन्द्रिय-हनन तक हर कोटि के साधनों द्वारा सम्भव दिखलाता है। इस प्रकार हिन्दू धर्म सदैव ही एक में लगे दो विपरीत दिशागामी चक्री से निर्मित धुरी जैसा रहा है।
'' 'हाँ!' वैष्णव धर्म कहता है, यह बिलकुल ठीक है! माता पिता, भाई, पति अथवा सन्तान के प्रति अपार प्रेम। यह बिलकुल ठीक होगा, यदि केवल यह सोच सको कि कृष्ण ही बालक है और जब तुम उसे खिलाते हो, तब कृष्ण को ही खिलाते हो!' वेदान्त की इस घोषणा के विरुद्ध कि 'इन्द्रिय-निग्रह करो', चैतन्यदेव ने उद्घोषित किया, 'इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर की पूजा करो।' ''मैं भारत को एक तरुण सजीव प्राणी के रूप में देखता हूँ यूरोप भी सजीव और युवा है। इनमें से कोई भी अभी विकास की उस अवस्था को नहीं प्राप्त कर सका है, जिसमें हम निरापद रूप से उसकी संस्थाओं की आलोचना कर सकें। ये दोनों महान् प्रयोग हैं, जिनमें अभी कोई भी पूर्ण नहीं हुआ है। भारत में हम सामाजिक साम्यवाद पाते हैं, जिस पर और उसके चारो ओर अद्वैत अर्थात् आध्यात्मिक व्यक्तिवाद का प्रकाश पड़ रहा है। यूरोप में तुम सामाजिक दृष्टि से व्यक्तिवादी हो, किन्तु तुम्हारे विचार द्वैतवादी हैं, जो आध्यात्मिक साम्यवाद है। इस प्रकार एक व्यक्तिवादी विचारों से घिरी हुई समाजवादी संस्थाओं से निर्मित है और दूसरा साम्यवादी विचारों से घिरी हुई व्यक्तिवादी संस्थाओं से निर्मित है। ''इस भारतीय प्रयोग का जैसा भी रूप है, हमें उसको सहारा देना चाहिए। जो आन्दोलन वस्तुओं को, जैसी वे स्वरूपत: हैं, उस रूप में सुधारने का प्रयास नही करते, व्यर्थ हैं। उदाहरणार्थ यूरोप में मैं विवाह को उतना ही अधिक आदर देता हूँ जितना अ-विवाह को। यह कभी न भूलो कि व्यक्ति जितना अपने गुणों से महान् एवं पूर्ण बनता है, उतना ही अपने दोषों से। इसलिए हमें किसी राष्ट्र के चरित्र के वैशिष्ट्य को मिटाने का प्रयास कदापि नहीं करना चाहिए, भले ही कोई यह सिद्ध कर दे कि उसके चरित्र में दोष ही दोष है।''
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