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सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602
आईएसबीएन :9781613012598

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


118. मैं उन सभी से असहमत हूँ, जो अपने ही अन्धविश्वासों को हमारी जनता के ऊपर लाद रहे हैं। जिस प्रकार मिस्र के पुरातत्त्ववेत्ता की मिस्र देश के सम्बन्ध में रुचि रहती है, उसी प्रकार भारत के सम्बन्ध में भी नितान्त स्वार्थपूर्ण रुचि रखना सरल है। कोई भी अपनी पुस्तकों का, अपने अध्ययन का अथवा अपने स्वप्नों का भारत पुन: देखने की आकांक्षा रख सकता है। किन्तु मेरी आकांक्षा इस युग के सबल पक्षों द्वारा परिपुष्ट उस भारत के सबल पक्षों को केवल एक स्वाभाविक रूप में देखने की। नये उत्थान को भीतर से ही विकसित होना चाहिए।

इसलिए मैं केवल उपनिषदों की शिक्षा देता हूँ। तुम देख सकते हो कि मैंने उपनिषदों के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र से उद्धरण कभी नहीं दिये; उपनिषदों से भी केवल 'बल, का आदर्श। वेद एवं वेदान्त का समस्त सार तथा अन्य सब कुछ एक इस शब्द में निहित है। बुद्ध ने अप्रतिकार और अहिंसा की शिक्षा दी। लेकिन यह मेरे विचार से उसी बात की अधिक श्रेयस्कर ढंग की शिक्षा है। कारण यह है कि अहिंसा के पीछे एक भयंकर दुर्बलता है। दुर्बलता से ही प्रतिकार के विचार का जन्म होता है। मैं सागर की फुहार के एक बूँद को न तो दण्ड देने की बात सोचता हूँ और न उससे पलायन करने की। यह मेरे लिए कुछ नहीं है। किन्तु मच्छर के लिए वह बूँद एक गम्भीर विषय होगा। अब मैं समस्त हिंसा को उसी प्रकार बना दूँगा। बल और अभय। मेरा आदर्श तो वह सन्त है जो विद्रोह में मारा गया था और जब उसके हृदय में छुरा भोंका गया, तब उसने केवल यह कहने के लिए अपना मौन भंग किया, ''और तू भी 'वही' है।'' किन्तु तुम पूछ सकते हो कि इस योजना में रामकृष्ण का क्या स्थान है?

वे तो स्वयं प्रणाली हैं, आश्चर्यजनक अज्ञात प्रणाली! उन्होंने अपने को नहीं समझा। उन्होंने इंग्लैण्ड या अंग्रेजों के विषय में कुछ नहीं जाना सिवा इसके कि अंग्रेज समुद्र पार के विचित्र लोग हैं। किन्तु उन्होंने वह महान् जीवन जिया और मैंने उसका अर्थ समझा। किसी के लिए कभी निन्दा का एक शब्द भी नहीं। एक बार मैं अपने यहाँ के पैशाचिकों के एक सम्प्रदाय की निन्दा कर रहा था। मैं तीन घण्टे तक बड़बड़ाता या प्रलाप करता रहा और वे चुपचाप सुनते रहे। जब मैंने कहना समाप्त कर लिया, तब उन्होंने कहा, 'अच्छा ठीक है। पर प्रत्येक घर में एक पिछला दरवाजा भी होता है। कौन जाने?'

अब तक हमारे भारतीय धर्म का बड़ा दोष केवल दो शब्दों के ज्ञान में निहित रहा है संन्यास और मुक्ति। केवल मुक्ति की बात! गृहस्थ के लिए कुछ नहीं! परन्तु मेरा अभीष्ट तो इन्हीं लोगों की सहायता करना है। कारण, क्या सभी आत्माएँ समान गुणवाली नहीं हैं? क्या सभी का लक्ष्य एक ही नहीं? इसीलिए शिक्षा के द्वारा राष्ट्र को शक्ति-सम्पन्न बनाना चाहिए।

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