ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
दोनों आगे-पीछे आकर खड़े हो गए। राणा, रमेश के पिता दोनों ने, एक बार उनको देखा और फिर बातों में उलझ गए। इस समय तक रेखा के मन की उथल-पुथल बहुत कम हो चुकी थी। अतः रमेश के पिता को पूर्ववत् मुद्रा में देख, उन्हें सन्तोष हो गया कि रेखा की उद्दण्डता वे नहीँ भांप सके हैं।
दूसरे दिन रमेश ऑफिस से लौटा तो चायपान के बाद सीधे राणा साहब के यहां जाने के लिए चल पड़ा। अभी सड़क पर ही था कि उसने राणा साहब को परेशान-सा बरामदे में टहलते देखा। उसने समझ लिया कि यह परेशानी रेखा से सन्बन्ध रखती हैं। उसने पास आकर पूछा-’आप इस तरह परेशान क्यों हैं?'
'कल रात को उसे फिट आ गया था। आश्चर्य है कि एका- एक उसे क्या हो गया? जब देरवना हूं खोई-खोई-सी रहती है। कलकत्ता आकर भी मेरी परेशानी दूर नहीं हुई रमेश।'
'दुःखी न हों, उसमें अभी अल्हड़पन है। शादी होते ही यह अल्हड़पन गम्भीरता में बदल जाएगा। रेखा है कहां? जरा मैं देख लूं कि उसकी तबियत कैसी है?'
'हां, देख लो बेटा? वहीं अपने कमरे में लेटी होगी।'
रमेश को आते देख रेखा उठ बैठी।
'कहो, कैसी तबियत है? ’ पास की कुर्सी पर बैठते हुए रमेश ने पूछा।
'ठीक हूं, लेकिन मैं...?'
'क्षमा चाहती हूं, यही कहना चाहती हो न! सो मैंने माफ कर दिया। और कुछ...।'
रेखा रमेश की जिंदादिली पर हंस पड़ी।
'रेखा ! मनुष्य को जिंदा रहने के लिए काम चाहिए, मस्तिष्क को कुविचारों से मुक्त रखने के लिए सुविचार चाहिए और यह तभी हो सकता है, जब वातावरण अनुकूल हो। मैं तो हृदय से ही चाहता हूं कि तुम किसी के साथ बंध जाओ। वातावरण तुम्हें अपने अनुकूल वना लेगा।’
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