ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'है तो ऐसी बात, पर मैं उसके अन्तर का हाल क्या जांनू? ‘परन्तु वह सौभाग्यवती है कौन?’
'वह सौभाग्यवती सामने ही तो खड़ी है।'
'जी...!' रेखा इस तरह चौकन्नी हो गई जैसे किसी शिकारी ने अचानक जाल फेंक दिया हो और उससे बच निकलना चाहती हो।
जब कुछ स्वस्थ हुई तो उसने रमेश को एक बार ऊपर से नीचे तक परखा। परख कर निश्चय कर लिया कि रमेश में कहीं कोई त्रुटि नहीं है।
‘पिताजी और बाबा भी निर्णय कर चुके हैं।' रमेश ने रेखा की चुप्पी पर पुन: आघात किया।
'परन्तु...!'
‘परन्तु क्या...?' मुझमें कोई त्रुटि है?
'नहीं... वस्तुत: मैं आपके योग्य नहीं।'
'रत्न की परख जौहरी ही करता है, रत्न स्वयं नहीं।'
'पर आप कांच को रत्न समझ बैठे हैं...। ’ रेखा ने सरल भाव से कहा।
रमेश ने धीरे से रेखा का हाथ पकड़ लिया और कहा-- ‘शायद तुम मुझसे कुछ छिपा रही हो! तुम्हारे अन्तर्मन में कोई झंझावात है जो तुम्हें स्थिर नहीं रहने देता।’
'नहीं तो...। ’
'सच-सच कहो, तुम्हारा मन कहीं और तो नहीं अटक रहा है...? ’
'रमेश! रेखा चिल्लाई और हाथ छुड़ाकर तेजी से लौट पड़ी। रेखा के इन आकस्मिक परिवर्तन सेँ रमेश स्तम्भित रह गया। उसकी समझ में न आया कि इस प्रश्न से वह क्यों कर चिढ़ गई। सत्य नहीं तो विरोध क्यों नहीँ किया? विरोध न कर, हाथ छुडाकर भाग जाने का मतलब क्या है? कुछ क्षण वह खड़ा-खड़ा सोचता रहा। फिर तुरन्त रेखा के पीछे हो लिया। वह चाह रहा था कि असलियत का पर्दाफाश हो जाए। क्यों दुविधा की चक्की में पिसते रहा जाए?
आगे रेखा, पीछे रमेश को तेजी से जाते देख राणा साहब का माथा ठनका। वे दोनों उनके सामने से ही गुजर रहे थे। रेखा की इस उद्दण्डता-उच्छृंखलता-से वे मन ही मन दुःखी हुए। रमेश के पिता को यह बात न मालूम हो, इसलिए भृकुटि तन जाने पर भी वे गम्भीर एवं शान्त बने रहे।
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