ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'न बाबा... ऐसी जगह आया ही क्यों जाए, जिसे छोड़ने को मन न चाहे।'
'क्यों?'
'विछोह दुःख का जनक है।'
'वह जगह छोड़ने की जरूरत ही क्यों आए? क्यों न कोई ऐसा उपाय करें कि सदा वहीं बने रहें।'
रेखा रमेश की बात नहीं समझी, ऐसी बात नहीं। फिर भी अनभिज्ञ की तरह बोली-’परन्तु विवशता के सम्मुख सभी को घुटने टेक देने पड़ते हैं।'
'वह इन्सान ही क्या जो विवशताओं पर विजय न पा सके।' रेखा चुप हो गई। उससे कोई उत्तर न बन पाया। तब रमेश ने झट वात बदल दी- 'आओ रेखा! तुम्हें अपना कमरा दिखाऊं।'
'यदि देखकर आखें चौंधिया गईं तो?'
'मजाक न करो रेखा। ऐसा धन्नासेठ मैं नहीं और ऐसी चीजें भी नहीं कि तुम चौंधिया जाओ।'
दोनों बात करते-करते कमरे में आ गए। रेखा निरीक्षक दृष्टि से कमरे को घूम-घूमकर देखने लगी। आकर्षक दृश्यों की हठात् मन को खीच लेने वाली तस्वीर, जमीन पर बिछी कालीन उस पर करीने से सजी हुई मेज-कुर्सियां, उच्चकोटि की पुस्तकों से सम्पन्न शीशेदार अलमारी -- सभी कुछ उसके परिष्कृत विचारों का परिचय दे रहे थे।
'अति सुन्दर... घर इतना सुन्दर होगा, यह तो मैं कभी अनुमान भी न लगा पाई थी।' आश्चर्य से बुत वनी रेखा ने कहा।
'परंतु यह सजावट फीकी हैं. इस फीकेपन की पूर्ति गृहणी ही कर सकती है?'
'तो फिर कर डालिए व्याह.. शुभ काम में देर क्यों?
‘वह तो करीब निश्चित सा है।’
'तो फिर देर किस बात की?'
'अभी लड़की ना-नुकर कर रही है।'
'आप जैसे रत्न को देखकर भला कौन लड़की ना-नुकर कर सकती है।'
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