ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
तेरह
रमेश ने जब अपने घर के गोल कमरे में प्रवेश किया तो राणा साहब और पिताजी को बातें करते देख एकाएक ठिठक गया। राणा साहब ने रमेश को देख लिया। मुस्कराते हुए बोले,’आओ न बेटा, रुक क्यों गए?' उसने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया और एक खाली कुर्सी पर बैठ गया। रेखा को अनु- पस्थित देख उसने अपनी शंका-निवारणार्थ पूछा- 'रेखा कहां है' वह नहीं आई क्या?'
'आई है, शायद तुम्हारे मकान का निरीक्षण कर रही है।' राणा साहब ने सामने वाले कमरे की ओर इशारा करते हुए कहा, जिसमें अभी-अभी रेखा गई थी।
रमेश को अब वहां बैठना अखरने लगा। भाग्यवश बगल में बैठी नीला ने पानी मांगा। एक बहाना मिल गया। वह नीला का हाथ पकड़ भीतर ले गया। पानी पिला देने के बाद नीला तो भागकर पुन: बाबा के पास चली गई। परन्तु रमेश नहीं गया, वह रेखा को पाना चाहता था। सब कमरों में होता हुआ जब वह बरामदे में पहुंचा तो उसने देखा, रेखा एक स्तम्भ से टेक लगाए सामने तालाब और उसके चारों ओर छाई हरियाली में खोई हुई है। वह दबे पांव उधर बढ़ा। पास पहुंचने पर उसे लगा, जैसे वह हरियाली की ओर नहीं देख रही है, किसी विचार में तल्लीन है।
रमेश ने पीछे से उसकी आंखें बन्द कर लीं। उसके विचारों का महल ढहकर खंडहर हो गया, वह घवरा गई। यद्यपि आंख मूंदने वाले ढीठ को वह पहचान गई, फिर भी अनजान बन बोल उठी- 'कौन..?'
'जी.. मैं हूं रमेश! किन विचारों में खोई थीं आप?' ‘नहीं तो, मैं तो घर का फेरा लगा, इस तालाब के किनारे की हरियाली देख रही थी।' रेखा ने बात बना दी।
'ओह, पसन्द आई यह कुटिया...?'
'जितनी प्रशंसा करूं कम है... और फिर तालाब, यह हरीतिमा, ये फलों से लदे वृक्ष, उन पर चहचहाते पक्षी, क्या मुंह से वर्णन करने की चीज हैं?'
'यदि कभी रात की छिटकी चादनी में देख लो तो यहां से जाने का नाम न लो।'
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