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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

दूर बजते हुए रुबाव का मधुर स्वर धीरे-धीरे तीव्र होता हुआ स्पष्ट हो गया। उसी स्वर-लहरी पर उनके हृदय भी ताल- बद्ध होकर नृत्य करने लगे। न जाने कितनी देर तक उसी ताल की लय में मस्त, वे एक-दूसरे के हृदय की धड़कनें सुनते रहे।

रुबाव का स्वर वातावरण को छोड़, शून्य में विलीन हो गया तो रेखा चौंककर उसकी गोद से उठ बैठी और एकदम अटेंशन की स्थिति में खड़ी हो गई। उसे लगा जैसे उसे किसी ने शिखर से खड्ड में ढकेल दिया हो। उसने अस्थिर स्वर में कहा- 'मैं तो जा रहीं हूं, मेरा दिन जोरो से धड़कने लगा है।'

‘फिर कब मिलोगी?'

'घर से कहीं भी अकेली जाना मेरे लिए असम्भव हो गया है, बस यही एक मार्ग है जो आज अपनाया गया है।'

'पर इस तरह कब तक चलता रहेगा?'

'जव तक सांस है।'

'सांस तव तक है, जब तक पेट में चारा है। चारे के अभाव मे सांस का रुक जाना निश्चित है।'

'तुम्हारा मतलब मैं नहीं समझी।’

'रेखा, तुम यह समझने का प्रयत्न क्यों नहीं करती कि मेरे साथ पेट लगा हुआ है, पेट में चारा डालने के लिए हाथ-पैर हिलाना तभी हो सकता है, जब तुम्हारी चिन्ता से मुक्त हो जाऊं।'

'मोहन, तुम्हारी विवशता मैं समझ रही हूं पर मैं भी असहाय हूं, कुछ दिन और धैर्य रखो।'

'परन्तु धैर्य का अन्त भी तो होना चाहिए।'

'विवशता का अन्त भी तो धैर्य की सीमा है।'

'लेकिन मैं यह चाहता हूं कि जो कल होना है वह आज ही होकर रहे।'

'फिर तुम्हीं कहो.. मैं क्या करूं?'

'अपने बाबा से साफ-साफ कह दो।',

'उनके स्वभाव को नहीं जानते तुम... वह यह सुनते ही मेरा गला घोंट देंगे।'

'यह तुम नहीं, तुम्हारा भय बोल रहा है.. कोई अपनी सन्तान का इस तरह अकारण प्राण नहीं लेता.. साहस करो और उनके सामने खुल जाओ। मैं जहां तक समझता हूं, तुम्हारे प्यार को वह कभी ठोकर नहीं लगाएंगे। तुम्हारा प्रस्ताव अस्वीकार कर दुनिया का व्यंग्य सुनने को वह कदापि तैयार न होंगे।'

रेखा को मोहन की बात कोई बुरी नहीं लगी। बोली- ‘अच्छा, प्रयत्न करूंगी।'

'प्रयत्न नहीं अवश्य! और कल ही।'

'इतनी जल्दी....’

'शुभ कार्य में विलम्ब कभी-कभी असहनीय हो जाता है।

रेखा ने कोई उत्तर न दे, केवल सिर हिला दिया और धीरे- धीरे पार्क से बाहर हो गई। पीछे-पीछे मोहन भी बाहर आकर अपने गन्तव्य स्थान की ओर मुड़ गया। जो हृदय थोड़ी देर पहले प्रेम के नशे में विभोर हो मस्त था, अब भय से आक्रान्त होकर भीतर ही घुटा जा रहा था।

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