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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'बातों में समय नष्ट न करो.... और यह लो बाहर की चाभी ... द्वार खोलो... मैं आती हूं।'

'कैसे हाथ लगी?

'वाबा की अलमारी से दूसरी निकाल ली है।'

मोहन झट से बाहर वाले द्वार की ओर चला गया।

रेखा ने गर्म चादर निकाली। सम्पूर्ण शरीर को उससे ढंक लिया।

दबे पांव रसोईघर को पार करती हुई वह बाहर आंगन में चली आई! घर के सब व्यक्ति मीठी नींद में सो रहे थे। इस सन्नाटे में उसे बाहर वाले द्वार पर की स्पष्ट आहट सुनाई दे रही थी, मोहन ताला खोल रहा था।

जैसे ही दोनों प्रेमियों के मध्य का बन्द द्वार खुला, वे एक- दूसरे की बांहों में समा गए। दोनों मौन थे - परन्तु दिल की धड़कनें एक-दूसरे को खूब अच्छी तरह समझ रही थीं।

तंग गलियों से बाहर निकल वे सामने पार्क की ओर बढ़े। पार्क में बनी पगडंडियों को छोड़ वे घास के मैदान में स्थित एक सीमेंटेड बेंच पर जा बैठे। कभी एक-दो घुमक्कड़ पार्क में दिखाई दे जाते थे।

पार्क के बाहर दीवार के साथ-साथ, शायद कोई वंजारों की टोली रंगरलियां मना रही थी। रुबाव की मधुर ध्वनि से वातावरण गूंज रहा था। आज कितने दिनों बाद रेखा चहार- दीवारी की कैद से मुक्त हो शुद्ध वायु में सांस ले रही थी। उसका अंग-अंग पुलकित हो रहा था। मोहन का साथ, वाता वरण को और भी सरस और उत्तेजनापूर्ण बना रहा था। दोनों आत्मविभोर हो रहे थे। सहसा मोहन ने रेखा को खींचकर उसका सिर अपनी गोद में रख लिया। उसके लम्बे केशों को अपनी उंगलियों में लपेटते हुए वह बोला- 'तुम्हारा हृदय तो...’

'भय से धड़क रहा.. और तुम्हारा भी.....’ रेखा ने मोहन के मुंह की बात छीन, उसे पूरा किया।

'वह कैसे?'

'पर्याप्त समय के पश्चात आज उसका मीत जो मिला है।'

'बातें तो ऐसी बनाते हो कि वाह! क्या कहने?' और रेखा ने अपना मुंह उसकी गोद में छिपा लिया।

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