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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

बारह

'राणा रघुनाथ प्रसाद ने जैसे ही नए मकान की एक खिड़की खोली, महीनों से जमी हुई धूल उनके कपड़ों पर बिखर गई। वह धूल झाड़ते हुए पत्नी से बोले, क्यों पसन्द आया मकान?'

‘ठीक है पर.....'

‘पर यह तो देखो, कितनी कठिनाई से मिला है।'

'यह तो मैं समझती हूं परन्तु बहुत पुराने ढंग का है। कुछ बन्द-सा.... जैसे कैदखाना... ’

'देखो जी.. यदि तुम चाहो कि मैं एक खुली हवादार कोठी लूं तो यह होने से रहा.. प्रश्न किराए का नहीं.... प्रश्न है....' ‘समझ गई.. दोहराने की आवश्यकता नहीं.. इन्सान को इतना रूढ़िवादी नहीं होना चाहिए...'

'कुछ भी समझो... अब तुम्हें इसी कैदखाने में रहना होगा।'

श्रीमती राणा ने कोई उत्तर नहीं दिया। सुनकर दूसरे कमरे में चली गईं। राणा साहब पर पत्नी के तुनक जाने का कोई प्रभाव न पड़ा। वह बार-बार अन्यान्य कमरों का निरीक्षण करने लगे।

आज कलकत्ता आए उन्हें तीसरा दिन था। मकान ढूंढने में उन्हें काफी परिश्रम करना पड़ा था। अब वह अपनी इच्छा- नुसार स्थान पाने में सफल हो गए थे। वह जानते थे कि कुछ कष्ट उठा लेने के पश्चात् सब इसमें रम जाएंगे। वह स्थान भी ऐसा ही चाहते थे जहां कोई व्यक्ति आसानी से घुसपैठ न कर सके। उन्होंने देखा, कमरे की खिड़कियां इतनी ऊंचाई पर हैं कि वह रोशनदान का ही काम दे रही हैं। किसी का वहां आना तो क्या झांकना भी कठिन है।

किसी के पांव की आहट बढते-बढ़ते पास आई तो उन्होंने मुड़कर देखा। रेखा उनके पीछे खड़ी थी।

'क्यों बेटी, मकान पसन्द आया?'

'आपकी पसन्द ही सबकी पसन्द है, बावा।

'तुम्हें कौन-सा कमरा चाहिए?'

'वह पीछे वाला छोटा कमरा ठीक रहेगा।'

वह मन-ही मन मुस्करा उठे। वह रेखा के चुनाव से सहमत थे। उन्होंने स्वयं भी उसके लिए वही कमरा चुना था।

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