ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
राणा साहब अपने मित्रों की बातों पर कभी-कभी हंस दिया करते थे, परन्तु अव वह अनुभव कर रहे थे कि जो कुछ वे कहते थे वह कितना कटु सत्य था। वे कहा करते थे कि जवान बेटी छाती पर धरोहर के समान है, जिस सम्भालने के लिए अत्यन्त सतर्कता की आवश्यकता पडती है।
सबके सम्मिलित प्रयत्न से सामान यथास्थान रख दिया गया। उजाड़-सा दिखता घर जगमगा उठा। उस पुराने ढंग के मकान की सूरत ही बदल गई। अपने कमरे का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करते हुए राणा साहब बोले- 'सामान तो सब ठीक जमा गया है.. पर वह कोने वाली मेज कुछ जमी नहीं....'
'शम्भू को बुलाकर अभी ठीक करवा देती हूं।' रेखा ने दिखरे हुए वालों को संवारते हुए कहा।
'ऐसी भी क्या शीघ्रता है.. सवेरे हो जाएगा, अब आराम करो।' दिन भर की थकावट से सब चूर हो रहे थे। रेखा और नीला तुरन्त अपने कमरे की ओर चली गईं। राणा साहब ने बरामदे में आकर पूछा- 'माली? ’
माली आ उपस्थित हुआ।
'तुम और शम्भू बाहर कोठरियों में सो जाओ.. .और यह लो ताला, बाहर बन्द कर लेना और सवेरे मुंह-अन्धेरे हमारी नींद खराब न हो। हां दूधवाला, रोटीवाला, इन सबसे बाहर ही निबट लेना। मैं नहीं चाहता कि यह लोग सीधे भीतर चले आया करें।'
उत्तर में माली ने सिर झुका लिया। माली राणा साहब के हृदय में छिपी पीड़ा अनुभव कर रहा था। वह ठीक ही कहते हैं.. ये लोग प्रायः भीतर की खबरें बाहर और बाहर की भीतर ले जाया करते हैं।
रेखा ने अपने कमरे का द्वार भीतर से अच्छी तरह से बन्द कर लिया। नीला को अपने ही बिस्तर पर सुला लिया। तब उसकी दृष्टि कमरे की दीवारों पर दौड़ने लगी। बन्द कमरे में एक रोशनदान देख उसके होठों पर फीकी मुस्कान दौड़ गई। वह अपने आपसे बोली-’आखिर बाबा ने मुझे कैद कर ही लिया। मोहन बेचारा क्या सोचता होगा? सोचता होगा, रेखा कितनी बेवफा निकली कि जाते समय सूचना तक नहीं दे गई! नाना प्रकार के विचारों में उलझकर वह नींद खो बैठी थी। शुभ-अशुभ विचारों का द्वन्द्व चल रहा था। मस्तिष्क इतना क्रियाशील हो गया कि उसमें फटन होने लगी। सिर पकड़कर वह बिस्तर पर लेट गई।
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