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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

जैसे ही उसने मेज पर चाय की ट्रे रखी, राणा साहब ने एक तिरछी दृष्टि रेखा पर डाली और बोले- 'बेटी....'

'जी...'

'आज तुम्हारी आंखें लाल क्यों हैं?'

'नहीं तो...'

'.....’

'जी... ओह.... यह तो आग के सामने बैठे रहने से है।' वह बड़ी कठिनाई से इतना ही कह पाई और मुड़कर तेजी से रसोई- घर की ओर बढ़ गई।

'आज आप दफ्तर से इतनी देर से क्यों लौटे?' पत्नी ने कुर्सी खींचकर बैठते हुए पूछा।

'आज काम अधिक था।'

'जितना स्वास्थ्य इजाजत दे, उतना ही काम करना चाहिए।'

‘परन्तु आज विवश था।’

'क्यों आज विशेष क्या बात थी?'

'एक-दो दिन में हम कलकत्ता जा रहे हैं।'

'वह क्यों?'

'मैंने अपनी बदली करवा ली है, इसीलिए चार्ज देने में थोड़ी देर हो गई।'

'पर यह तबादला किसलिए?'

'अब मैं यहां रहना नहीं चाहता।'

'ओह समझी.. मैं नहीं जानती थी कि आप इस छोटी-सी बात को इतना तूल देंगे।’

'पगली... यह भी भला किसी के वश की बात है?'

'आप मुझसे अधिक बुद्धि रखते हैं, यदि कोई बच्चा भूल करे तो उसे रास्ते पर लाना हमारा कर्त्तव्य है.... दण्ड के स्थान पर यह काम यदि हम प्यार से लें तो कहीं ज्यादा अच्छा है।' ‘इसीलिए तो मैंने यह सब-कुछ किया है..... जहां तक वह पैर बढ़ा चुकी है वहां से उसे वापस लाने के लिए केवल मात्र यही एक उपाय था। वह बहुत आगे बढ़ चुकी है। सम्भव है, अन्धी जवानी के जोश में कहीं भयानक कांड न कर बैठे, जिसे हम सहन न कर सकें।

पहले तो यह सुन वह आश्चर्यचकित रह गईं, पर धीरे-धीरे उनके मस्तिष्क में भी पति की बातें समझ में आने लगीं। ठीक ही तो है.. कलकत्ता गुलजार शहर है... जब इस वातावरण को छोड़कर वह वहां पहुंचेगी तो सब भूल जाएगी। हो सकता है, उसका गिरता हुआ स्वास्थ्य भी सम्भल जाए.. और फिर रमेश भी तो वहां है.. इस विचार ने क्षण भर के लिए उन्हें आनन्द- विभोर कर दिया।

राणा साहब ने पत्नी को इस बात की चेतावनी दी कि किसी को उनके जाने की बात का सुराग तक न लगे।

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