ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'क्या है बाबा....? ’
‘कहां थी? ’
'बाथरूम में.....'
'उफ्...।' राणा साहब वड़बड़ाते हुए बैरंग वापस लौट गए। मां-बेटी आश्चर्यमिश्रित दृष्टि से उन्हें देखती की देखती रह गईं।
रेखा ने बाबा की सन्देहयुक्त दृष्टि को भांप लिया था। उसका मन क्षोभ से भर आया। आंखों में अविरल अश्रुधारा बह निकली। चिल्ला-चिल्लाकर वह मां से लिपट गई। उसकी सिसकियों ने मां के हृदय में तूफान भर दिया।
दूसरे दिन मध्यान्ह को जब मालती आई तो रेखा रसोईघर में काम कर रही थी। पहली भेंट श्रीमती राणा से हुई। उनके मुंह से सब बात सुनकर वह सीधी रसोईघर में चली गई। उसने जो रेखा को देखा तो चकित रह गई। इन थोड़े दिनों में ही उसमें काफी परिवर्तन हो गया था, ऐसा मालुम पड़ रहा था, जैसे वह एक लम्बी अवधि से बीमार हो। वह रेखा के पास बैठ गई और उसकी पीठ पर हाथ फेरती हुई बोली- 'यह सब कैसे हो गया रेखा?'
'उस दिन जो पत्र तुम लाई थीं, वह बाबा के हाथ लग गया।'
'उई मां! तव तो मुझ पर भी उन्हें शक हो गया होगा, क्योंकि मैं ही तुम्हें साथ ले गई थी।'
'तुम्हारे साथ जाने से और शक से तो कोई तुक नहीं बैठता। उन्हें तुम पर शक करने का कोई कारण ही नहीं। शक का कारण वह पत्र था। पत्र उनको तुमने नहीं डिक्शनरी ने दिया था।'
'पर मैं तो जैसे अधमरी हो गई हूं। उन्हें यदि मुझ पर शक हुआ तो कहीं की न रहूंगी और यदि कहीं मेरे चाचा के कानों तक बात पहुंच गई तो.....। ’
'मेरे बाबा ऐसे नहीं। वे बात पचाना खूब जानते हैं। उगलना तो जैसे जानते ही नहीं। उसी पत्र के बारे में देखो, उन्होंने स्वयं उसे मेरे हाथों में दे दिया, बोले कुछ नहीं। इतने गम्भीर है वे।'
'फिर भी उनका सामना मैं नहीं कर सकूंगी, क्योंकि, चोर का दिल आधा होता है। जड़ में तो मैं ही हूं। आज चल रही हूं, फिर किसी दिन आऊंगी।’
रेखा के लाख रोकने पर भी वह न रुकी। इसी समय मां ने रेखा को आवाज दी। जाकर उसने ट्रे उठा लिया और बावा के कमरे में जा पहुंची।
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