ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'परीक्षा सिर पर है... उसके वर्ष भर के परिश्रम को आप अपनी थोडी-सी हठ के लिए नष्ट कर रहे हैं।'
'मैं वर्ष भर के परिश्रम के लिए अपने जीवन-भर का परि- श्रम नष्ट नहीं करना चाहता।'
'यह भी कभी सोचा है कि कल उसे किसी अच्छे घर जाना है।'
'तो क्या हुआ.... डिग्री न हुई तो लोग कुछ न कहेंगे-यदि बदनामी की डिग्री मिल गई तो हम कहीं के न रहेंगे।'
रेखा इनने अधिक सुन न सकी। वह गिरती-पड़ती अपने कमरे की ओर भागी और पलंग पर औंधी लेटकर सिसकियां भरने लगी।
रात काफी बीत चुकी थी। चतुर्दिक सन्नाटा व्याप्त था। सव लोग निद्रा-मग्न थे, पर राणा साहब विस्तर पर लेटे करवटें बदल रहे थे। उनकी आंखों में नींद न थी।
उनके मस्तिष्क में भांति-भांति के विचार उथल-पुथल मचा रहे थे। एक ओर था सन्तान का स्नेह और दूसरी और वंश की मर्यादा ! वह रेखा को इस समय मुंह लगाना तो क्या, उनकी सूरत भी देखना नहीं चाहते थे। क्षणमात्र के लिए उनकी आंखों के सामने रेखा की भोली मुखाकृति कौंध गई। वह एकाएक चौंक पड़े....! उसका फूल- सा कुम्हलाया हुआ मुखड़ा, किसी भयानक मंजिल की सूचना दे रहा था। वह इसी तरह घुल-घुलकर कहीं प्राण न दे दे.. हो सकता है लज्जा से घबराकर जहर खा ले... और.. और..आंख की लाज उतर जाने पर चुपके से कहीं निकल गई तो।
यह विचार आते ही उनका रोम-रोम कांप गया। एकाएक वह विस्तर से उठ बैठे। कुछ देर तक सोचते रहे, फिर भारी-भारी पांव उठाते हुए रेखा के कमरे में पहुंचे।
द्वार खुला देखकर वह भौंचक्के-से रह गए। झपटकर भीतर गए और बत्ती जला दी। रेखा का बिस्तर खाली था। उनका माथा घूम गया। घबराहट में चिल्ला उठे-’रेखा..' उनकी गरज सुनकर श्रीमती राणा हड़वड़ाकर उठ वैठीं। घबराकर पति की ओर देखा। उसी समय रेखा धोती के आंचल से हाथ पोंछती भीतर आई।'
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