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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'बाबा यह तो कोर्स में है।'

'कोर्स में है.. उच्चकोटि की और प्रसिद्ध लेखक की पुस्तक जो ठहरी, तुम जैसी अविवाहितों को सुमार्ग दिखाने के लिए अवश्य उपयोगी हैं..' व्यंग्य किया राणा साहब ने-’दुःख होता है उन शिक्षाविदों पर जो अविवाहित लड़की-लड़कों के लिए ऐसी पुस्तकें स्वीकृत करते हैं। उन्होंने संस्कृति की ओर से जैसे आखें मूद ली हैं। अच्छी पुस्तकों से साहित्य भरा-पूरा है, फिर भी न मालूम क्यों विदेशी साहित्य से चिपके हुए है...'

राणा साहब का क्रोध यहां तक बढ़ गया कि वे अपने को रोक न सके और पैर पटकते हुए कमरे से बाहर चले गए बहुत सोच-विचार के पश्चात् उन्होंने दूसरे ही दिन उसका नाम कॉलेज से कटवा दिया। कॉलेज की प्रिंसिपल चकित रह गई। उन्होंने अनुरोध करते हुए कहा- 'राणा साहब, एक बार फिर सोच लीजिए, लड़की के जीवन का प्रश्न है।'

'मैंने भली प्रकार सोच लिया है।'

'आप इतना तो सोचें कि परीक्षा में केवल एक महीना शेष है।'

'परन्तु मैं विवश हूं।'

'ऐसी कौन-सी विवशता आ पड़ी।'

'आधुनिक शिक्षा-प्रणाली से मैं सहमत नहीं।'

'पर क्यों?'

‘क्षमा कीजिए, एक बार कह चुका कि आजकल की शिक्षा- प्रणाली दोषपूर्ण है और फिर यह मेरा निजी प्रश्न है, मैंने के उचित समझा है, वही किया है।'

घर लौटने पर जब उन्होंने अपना निर्णय पत्नी को सुनाया तो वह विस्मित रह गई। रेखा जो दिन-रात सन्देह की शिकार थी, हर बात पर कान रखती थी। पर्दे के पीछें से जब उसने बाबा का यह अनोखा निर्णय सुना तो कांप गई। उसकी नसों में - बहता हुआ रक्त जैसे जमकर पत्थर हो गया।

मां से नहीं रहा गया। साहस कर वह बोली-’आखिर आपको यह क्या सूझी?'

'हमारी-तुम्हारी भलाई इसी में है कि हम भविष्य में कालेज का नाम न लें।'

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