ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
राणा साहब ने रेखा को पहली दृष्टि में ही देख लिया था, परन्तु चुप बैठे रहे। देखना चाहते थे वे कि वह अब क्या करती है, पर जब उसे उन्होंने, हिलते-डुलते न देखा तो उठकर स्विच ऑन कर दिया। उस प्रकाश में राणा साहब की गम्भीर मुखाकृति पर दृष्टि पड़ते ही उसे काठ मार गया।
राणा साहब ने होठों पर कृत्रिम मुस्कान लाते हुए पूछा- ‘मालती कहां है?'
'बाहर ही से लौट गई।'
'शायद उसे देर हो रही थी।'
'जी...’
'जान पड़ता है तुमने चाय-पार्टी में कुछ नहीं खाया।’
'जी, चाय-पार्टी में जाकर न खाऊं, ऐसी बात तो नहीं।'
'तो चेहरा इतरा मलीन क्यों है?'
'कुछ दिनों से स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता।' रेखा सीधा-सादा उत्तर देकर जैसे ही बाहर जाने को मुड़ी कि सामने फर्श पर गिरी डिक्शनरी को देख, वह आपादमस्तक कांप उठी।
कांपते हाथों से डिक्शनरी उठाकर जल्दी-जल्दी पन्ने उल- टने लगी। राणा साहब ने हाथ बढ़ाकर मोहन का पत्र आगे कर दिया और बोले- 'शायद तुम्हें इसी की खोज है?'
रेखा ने विमूढ़ की भांति पत्र को पकड़ लिया और मुट्ठी से मसलकर नीचे गिरा दिया। राणा साहव बिना कुछ कहे-सुने पूर्ववत् गम्भीर मुद्रा में चले गए। वह मूर्तिवत् आश्चर्य में डूबी खड़ी रही। आंखों की लाज, जो अब तक बाबा के सामने सुर- क्षित थी, वह अरक्षित हो गई थी। उसका मूल्य गिर चुका था, वह अपने को उनके समक्ष बिलकुल नंगी अनुभव कर रही थी। उसी रात जव रेखा बैठी पढ़ रही थी तो राणा साहव किसी कार्य से उधर आ निकले। रेखा घबराहट में उठ बैठी। राणा साहब ने पास पडी पुस्तक का नाम पढा’रोमियो जूलियट' तो उनकी गम्भीरता का बांध पुनः टूट गया। पुस्तक उन्होंने उठाकर सामने की खिड़की से बाहर फेंक दी। ‘ऐसी लचर किताबें पढ़ने का तुम्हें कब से शौक हुआ? सब-कुछ जानते हुए भी उन्होंने अनजान वनकर पूछा।
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