ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
राणा साहब क्रोध में कांपते हुए स्वयं ही रेखा की अलमारी तक जा पहुंचे, चन्द पुस्तकों को उलटने-पलटने के पश्चात उन्होंने अलमारी के दराज को खोला। डिक्शनरी उसी में थी। उसे लेकर अपने कमरे में लौट आए।
जैसे ही उन्होंने डिक्शनरी खोली, कागज का एक टुकड़ा पंखे की हवा से उड़कर नीचे गिर पड़ा, उत्साहपूर्वक उन्होंनेँ उसे झुककर उठाया और पढ़ने लगे।
वह मोहन का पत्र था जो चलते-चलते रेखा ने शीघ्रता से उसी डिक्शनरी में रख दिया था। उसे पढ़ते ही उनका मुख क्रोध से लाल हो गया। धीरे-धीरे वह लाली एक भयानक कालिमा में परिवर्तित होने लगी। पुस्तक उनके हाथों से छूटकर फर्श पर गिर पड़ी।
इसी भयानक गम्भीरता में वह सोफे का सहारा लेकर उठे, अलमारी से कोट निकालकर पहना, जाने को हुए, फिर कुछ सोचकर रुक गए। आसपास देखा कोई न था। हताश धम्म से कुर्सी पर बैठ गए। मस्तिष्क आनेवाले भयानक तूफान से फटा जा रहा था। हृदय की गति इतनी तीव्र हो गई कि उन्होंने हृदय को जोर से दबा लिया।
न जाने कितनी देर तक वह उसी अवस्था में बैठे रहे।
सांझ का अंधेरा घना होता गया, परन्तु उनके मस्तिष्क में घना होता अन्धकार उन्हें किसी भयानक घटना की सूचना दे रहा था।
इसी समय बरामदे में किसी के आने की आहट हुई। वह चौकन्ने होकर आने वाले की प्रतीक्षा करने लगे। अन्धेरा होने के कारण उन्हें आने वाला नहीं देख सकता था, पर वे देख सकते थे। उजाला न होने से आने वाले ने झट बालकनी की बत्ती जला दी।
उजाला होते ही उन्हें रेखा की सूरत दिखाई दी, जो पहले दबे पांव और फिर तेजी से अपने कमरे की ओर जा रही थी। गोल कमरे में दृष्टि पड़ते ही वह कांप गई। सामने सोफे पर राणा साहब अन्धेरे में वैठे थे। उसने चाहा कि दौड़कर भीतर भाग जाए, परन्तु साहस न कर सकी। थोड़ी देर तक क्या करे, क्या न करे, इसी ऊहापोह में चुप खड़ी रही।
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