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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

अचानक उसी समय राणा साहब ने रेखा को आवाज दी। श्रीमती राणा सुनकर कांप गई। परन्तु दूसरी बार जब उन्होंने नीला को पुकारा तो उनकी जान में जान आई। नीला लम्बी छलांग मारती हुई बरामदे को पार कर गोल कमरे में आ पहुंची।

'जी... बाबा! ’ नीला ने हांफते हुए बाबा से पूछा।

'बेटा, जरा रेखा से डिक्शनरी मांगकर तो ले आ।'

'परन्तु, दीदी तो घर में नहीं है...'

'कहां गई...' राणा साहब बौखला उठे।

'मालती दीदी के साथ...'

श्रीमती राणा जो रेखा का नाम सुनकर पहले से ही घवराई हुई थीं, धीरे-धीरे रसोईघर से उनके कमरे तक आ गई। भीतर प्रवेश करते ही राणा साहब ने आंखों का चश्मा सिर पर चढ़ाते हुए पूछा....

'रेखा कहां है?'

'मालती के साथ किसी सहेली के यहां चाय पर गई है।' ‘चाय पर गई है.. कितनी बार कहा कि मुझे ये सब बातें पसन्द नहीं।'

'आखिर हुआ क्या... इतने दिनों बाद तो निकली है!' नीला ने माता-पिता का रुख देखा तो आश्चर्यचकित रह गई। उसने कभी दोनों को इस तरह सीमोल्लघंन करते नहीं देखा था। वे गम्भीरता की सीमा लांघकर उस सीमा में आ पहुंचे थे, जहां प्रायः तू-तू मैं-मैं हो जाती है।

दोनों सीमाओं के मिलन-बिन्दु पर खड़ी हो उसने कहा- ‘बाबा, मैं पुस्तक ले आंऊ?'

'नहीं, मैं स्वयं ही ले आऊंगा।’

सुनकर नील्रा स्तब्ध रह गई। उसने समझा था, बीच में कूदकर उनके क्रोध को वह शान्त कर देगी।

पर जब असफल रही और पिता का क्रोध चरम सीमा तक पहुंच गया तो नीला मां का हाथ पकड़, उन्हें घसीट ले गई रसोई में। तब तक चूल्हे पर रखी दाल जल चुकी थी - दालाइन महक आ रही थी - बिल्ली ने दूध की अथरी गिराकर दूध सफाचट कर दिया था। जो दो-चार रोटियां बनी थीं, उन्हें चूहे कुतरकर अपना पेट भर चुके थे। उधर पति और इधर इनके आक्रमण से बौखलाकर वह पुनः चूल्हे से उलझ पड़ी।

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