ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'परन्तु-वरन्तु कुछ नहीं...' मालती ने रेखा को आंख का संकेत किया, फिर चाची की ओर घूमकर बोली--’चाची, आप अनुमति दे दें, तो मुश्किल आसान हो जाएगी।'‘अच्छा... प्रयत्न करती हूं।' रेखा की मां आशा बंधाकर बाहर गोल कमरे में चली गई।
मां के चले जाने पर रेखा ने बाहर न जाने की इच्छा प्रकट की तो मालती ने तुरन्त उसके हाथ में एक पत्र दे दिया - जिसे रेखा अधीरता से पढने लगी। पत्र मोहन का था जिसमें उसने नदी किनारे आने का आग्रह किया था। मालती, चन्दा के घर का बहाना कर उसे साथ ले जाने को आई थी। रेखा ने प्यार- मिश्रित दृष्टि से उसकी ओर देखा और बोली- 'मेरी अच्छी मालती! मैं तुम्हारा उपकार जन्मपर्यन्त न भूलूंगी।'
'बस-बस रहने दे,... देख, वह चाची आ रही हैं।' रेखा ने पत्र मोड़कर ब्लाउज के नीचे खोंस लिया। मां ने कमरे में प्रवेश करते ही कहा-
'दफ्तर का काम कर रहे हैं, कहने का अवसर ही नहीं मिला। बीच में दखल देना अशिष्टता होती, इसलिए बैरंग वापस चली आई। तुम इसे ले जाओ.... मैं स्वयं उनसे निपट लूंगी.. और हां, जरा शीघ्र आना...।'
रेखा शीघ्रता से उठी और जाने की तैयारी करने लगी। उसने मोहन का एक पत्र एक पुस्तक में छिपाकर अलमारी में रख दिया और अपना पर्स ले मालती के संग घर से बाहर निकल गई। इस समय वह अपने को उस पक्षी की भांति अनुभव कर रही थी, जो एक लम्बी अवधि तक पिंजरे में बन्द रहने के पश्चात् छुटकारा पाकर एक डाल से दूसरी डाल पर फुदक-फुदककर अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा करता फिरता है।
श्रीमती राणा ने रेखा को जाने की अनुमति दे दी, परन्तु जाने के बाद उनका दिल जोरों से धड़क उठा, फिर भी उन्होंने निश्चय कर लिया था कि पुत्री की आज जी-जान से वकालत करेगी। उनकी बीस नहीं पड़ने देगी। ऐसी भी क्या सख्ती कि लडकी चिन्ता से सूखती चली जाए। महीनों से उनका कहा करती आई हूं, अब उन्हें मेरी बात माननी ही पड़ेगी, तर्क-वितर्क करते काफी समय बीत गया। पर राणा साहब का काम न समाप्त होने को था, न समाप्त हुआ। खिझलाकर भनभनाते हुए वह रसोईघर में चली गईं।
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