ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
ग्यारह
मां ने रेखा के कमरें में प्रवेश किया तो रेखा को विचारमग्न देख भौंचक-सी रह गई। मां ने अभी तक इम बात को अधिक महत्व नहीं दिया था। गम्भीरता से विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं समझी थी। सोचा था, थोड़ी-सी कड़ाई कर देने से सही मार्ग पर आ जाएगी, लेकिन उन्होंने अनुभव किया कि बात बहुत आगे तक वढ़ गई है। उन्होंने नम्र स्वर में पूछा-
'क्यों रेखा, बात क्या है?'
'कुछ नहीं मां।' और झट से उसने भीगी आंखों को आंचल से पोंछ लिया।
'तो यह आंसू किसलिए?'
'एक दुःखान्त कहानी पढ़ रही थी।' पास रखी पुस्तक की ओर इंगितकर उसने कहा।
'यदि इस आयु में आंखें इस तरह बरसने लगीं तो भविष्य में क्या होगा?'
भविष्य में इससे भी अधिक रोना होगा? यही कहना चाहती हैं न आप?'
'नहीं... नहीं। मेरा मतलब यह है कि जवानी हंसने-खेलने के लिए है, उसे प्रसन्नता से ही व्यतीत करना चाहिए।
उसी समय मालती ने कमरे के भीतर प्रवेश किया।
'नमस्ते चाची.. क्या बात है?'
'कुछ नहीं, देखो न, यह सदा उदास और मौन रहकर न मालूम कहां विचरा करती है।'
'उदास न रहेगी तो क्या खुश रहेगी। सदा घर की चहार- दीवारी में बन्द रहकर मन कहीं प्रसन्न रह सकता है? ’
‘क्या करूं... इसके बाबा मानते ही नहीं।'
'तो मैं उनसे जाकर कहती हूं...!'
'रहने दे मालती... मुझे कहीं नहीं जाना है।' रेखा ने गम्भीर होकर कहा।
'मैं तो तुम्हें आज अवश्य ही ले जाऊंगी....।'
'कहां? मां ने बात काटते हुए पूछा।
'चन्दा ने सबको चाय पर बुलाया है।'
'परन्तु...'
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