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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'यही कि वे गरीब हैं, और हम हैं, गरीब का उपहास करने वाले ऊंची श्रेणी के लोग।'

'प्रेम किसी की ऊंचाई या निचाई नहीं झांकता... वह दुनियां वालों की दृष्टि में चाहे जो भी हो, पर तुम्हारे मन के तो स्वामी हैं।'

इस बार रेखा मालती को खींचकर उसी घास वाले मैदान में ले गई और वहीं बैठकर उसने आदि से अन्त तक का इतिहास उसे कह सुनाया। वहीं बैठकर दोनों ने मोहन के पत्र को बारी- बारी से पढ़ा। पढ़कर परस्पर तर्क-वितर्क हुआ - विचार-विनि- मय हुआ तो मालती ने कहा--’रेखा, किसी कार्य में जल्दबाजी बड़ी खतरनाक होती है। खूब अच्छी तरह समझ-बूझकर ही अन्तिम पग धरना। ऐसा न हो कि फिसलकर वहां जा गिरो, जहां से निकलना दूभर हो जाए।'

‘तुम्हारा मतलव नहीं समझी मैं? ’

'मेरा मतलब बस इतना ही है कि जिस नाव पर बैठकर तुम पार लग जाना चाहती हो, उस नाव की पहले जांच कर लो कि कहीं कोने-अतरे में अदृश्य छिद्र तो नहीं है, जिसमें से पानी प्रवेश करे, वह अपने सवार को ले डूबे।'

यद्यपि मालती ने अमूल्य बात कही थी, पर उस पर बिना विचार किए ही रेखा बोली-

'मालती, काश यह तुम मेरी आखों से देख सकतीं।' ‘तुम्हारी दृष्टि से देखना तो असम्भव है, पर अपनी दृष्टि से ठीक देख लिया है।'

'क्या?'

'व्यक्ति साधारण नहीं... उसकी आंखें बड़ी कठोर हैं।

'नहीं मालती, ऐसा न कहो तुमने पहली बार देखा है, इसलिए भूल कर सकती हो।'

'अच्छा, यह तो सामने ही आएगा - हाथ कंगन को आरसी क्या? ’

इस समय कामन रूम में दो और लड़कियों ने प्रवेश किया। उनकी बातचीत का सिलसिला वहीं से टूट गया। दोनों बाहर निकलीं! दोनों प्रसन्न थीं। मालती - इसलिए प्रसन्न थी कि उसे रेखा की उदासीनता का पता लग गया और रेखा इसलिए प्रसन्न थी कि मन का बोझ हल्का करने के लिए संगिनी मिल गई।

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