ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'यह पीला मुख... यह आंखों के नीचे स्याही-जैसा काला- पन, ये उलझी लटें, हंसी गायब... यह क्या होता जा रहा है तुम्हें? ’
'कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही है तू।'
'मैं बहकी नहीं हूं.... बहक गई है तू... किसी के बन्धन में कस गई है।'
'मालती... यह क्या बकवास है?'
'बिगड़ती क्यों है... मुखाकृति सब-कुछ स्पष्ट बतला रही है।’
'क्या बता रही है, बता तो जरा।'
'जरा मुंह तो धो ले, मुंह पर छाई मलीनता भाग जाए तो बताऊं।'
रेखा समझ गई कि मालती सब-कुछ जान गई है। दाई से पेट छिपाना व्यर्थ होगा। क्यों न उससे साफ-साफ बात की जाए। अंतरंग सहेली है। कुछ नहीं तो कोई उपाय - कोई रास्ता निकालेगी ही - बताएगी ही। उसने जी कड़ा किया और खुल पड़ी --’मालती, मैंने ऐसे मार्ग पर पैर बढ़ा दिया है कि उस मार्ग से लौट पड़ना मेरे लिए असम्भव हो गया है। बहुत दुःखी हूं मैं। समझ में नहीं आता, क्या करूं?'
मालती ने उसके अन्तर्प्रदेश में ज्वालामुखी के विस्फोट होने जैसी भयानकता का अनुभव किया। शायद उसी विस्फोट के शमन के लिए उस व्यक्ति ने उसे कुछ सुझाव दिया हो। अत: रेखा को और अन्धेरे में न रख वह पत्र उसके हाथों में दे दिया और स्वयं कॉलेज के कामन-रूम की ओर बढ़ गई। पत्र हाथ में लिए, वह मालती के पीछे दौड़ी।
दोनों कॉमन-रूम में आ बैठीं। सौभाग्य से वहां और कोई लडकी न थी। रेखा ने सन्तोष की सांस लेते हुए कहा,’मालती, तुमने मुझे अकेली छोड़ एकान्त देना चाहा था। पर शायद तुम्हें नहीं मालूम कि मैं आजकल एकाकी जीवन ही व्यतीत कर रही हूं। तुम यह भी जान गई हो कि मेरे इस गलत कदम से माता- पिता, नौकर सभी ने मुझसे मुंह मोड़ लिया है। मैं बेसहारा हो गई हूं। एक तुम्हारे सहारे की अपेक्षा है मालती! मेरी प्यारी मालती, मुझसे कभी नाराज न होना! तुम्हारा सहारा भी न मिला तो मेरा जीवन खतरे में ही समझना।'
'पगली कहीं की, ऐसा क्यों सोच रही है? मैं तेरे साथ हूं।'
‘मालती! वे राजकुमार, डाक्टर, वकील या बैरिस्टर, इनमें से कोई-भी नहीं हैं, सेठ-साहूकार या मिल-मालिक भी नहीं कि लाखों की ढेरी पर सोते हों। वे तो एक साधारण मानव हैं - गरीब हैं - पर साहसी हैं, वचन के धनी हैं।'
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