ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'केवल मन को तसल्ली देना चाहता हूं।’
'आप घबराइए नहीं. मैं पुलिस की सहायता लेने नहीं जा रही हूं.. लेकिन - इस तरह किसी शरीफ लड़की का पीछा करना उचित नहीं.. मैं आप जैसे लोगों का मुंह देखना भी पसन्द नहीं करती।'
'ओह... इस कृपा के लिए धन्यवाद।'
रेखा बिना कुछ उत्तर दिए प्राण छुड़ाने की गरज से डाक- घर की सीढियां चढने लगी। अजनबी ने रास्ता रोकते हुए कहा-’तो यह साप्ताहिक लेती जाइए...’
'ओ माई गॉड ! भगवान बचाए आप जैसे लोगों से।' रेखा ने साप्ताहिक ले लिया और मूल्य देने के लिए बटुआ रवोलने
लगी। ‘रहने दीजिए...' उसने कहा और तेजी से चला गया।
रेखा हाथ में साप्ताहिक लिए उसे देखती रह गई।
'क्या हो रहा है रेखा? मालती विचारों की दुनिया से उसे झिंझोड़ते हुए बोली।
'ओह! कुछ नहीं... फार्म ले आई?'
'फार्म कैसा, मैं तो तार देने गई थी।'
'सॉरी।'
'जल्दी चलो. देर हो रही हे।'
'परन्तु तू घबराई हुई-सी क्यों है?'
'नहीं तो...' घबराहट में झुंझलाते हुए वह बोली और फिर दोनों शीघ्र पांव बढ़ाते हुए घर की ओर जाने लगी।
दूसरे दिन कालेज से छुट्टी होने के पश्चात् जब दोनों सहे- लियां उसी मार्ग से घर लौट रही थीं तो डाकघर की सीढ़ियों के पास पहुंचते ही रेखा का मन धडकने लगा। उसने आस-पास छिपी दृष्टि से. देखा जब वह अजनबी कहीं दिखाई न दिया तो वह सन्तोष की सांस लेते हुए मालती से बोली-'जरा जल्दी चलो-’घटा जोरों की छा रही हैं।'
'सावन का महीना भी तो बस एक बला है। सवेरे ही डैडी ने कहा था कि छाता अवश्य साथ ले जाना, किन्तु मैंने सुनी-अन- सुनी कर दी।'
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