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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'तो क्या हुआ? डांट-डपट पड़ भी गई तो कौन-सी दुबली हो जाओगी।'

दोनों की धीमी हंसी वातावरण में गूंज गई और उन्होंने अपनी गति पहले से तेज कर दी।

बालागंज के चौराहे पर पहुंचकर दोनों एक पल के लिए रुकी। मालती बोली-’अच्छा रेखा. अब तुम्हारा रास्ता वह और मेरा यह...'

'कल मेरी पुस्तक लेती आना..'

'ओ० के०' कहती हुई मालती एक ओर चल दी। रेखा ने दूसरी सड़क पकड़ ली। यह चौराहा प्रतिदिन सवेरे उनके मिलाप और इस समय विछोह का स्थान था।

एक-दो बार विजली चमकी और फिर बादल गरजने लगे। थोड़े ही समय में हल्की-हल्की बूंदें पड़ने लगी। रेखा के पांव शीघ्रता से उठने लगे, साथ ही वर्षा के छींटे भी जोर पकड़ने लगे।

वर्षा के तेज होते ही रेखा लपककर सामने एक बडी.इमा- रत के बरामदे में जा ठहरी और पानी के थम जाने की प्रतीक्षा करने लगी। उसी समय बरसात से बचने के लिए एक व्यक्ति ने वहां प्रवेश किया। वह सिमटकर एक कोने में हो गई और उसे देकले लगी। उसका चेहरा दूसरी ओर था।

जैसे ही आने व्यक्ति ने सिगरेट निकालकर जलाने के लिए लाइटर सुलगाया, रेखा ने उधर देखो और देखकर कांप गई। मुंह से’हठात् निकल पड़ा-'ओह! तुम..'!’

ओह! आप ! क्षमा कीजिए, मैंने देखा नहीं... नमस्ते!' ने घबराई दृष्टि से पहले उसे देखा, फिर उस वरामदे के एकान्त को - और तव बाहर जाने को लपकी। उस व्यक्ति ने हठात् उसकी बांह पकड ली और बोला-'इतनी वर्षा में भीग जाओगी।'

‘तुम्हें इससे क्या? छोडो... जाने दो।’

‘आज तो तुम ऐसे न जा सकोगी।'

स्वर में दृढ़ता लाते हुए वह बोली,’तुम कौन होते हो मुझे रोकने वाले।'

‘शुभेच्छु।''

'शुभेच्छा तो तुम्हारे कण-कण से टपकती है... महाशय भ्रम में मत रहना... मेरे पाम कोई बहुमूल्य हार नहीं... साधारण कांच का है यह।'

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