ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
दो
रेखा उसकी सहेली मालती सांझ को कालेज से लौटते समय डाकघर पास आकर रुक गई। मालती को एक तार देना था।
मालती सीढियां चढ़ने को हुई तो रेखा को खड़ी देखकर बोली-’क्यों रेखा? तू साथ न देगी?''
'डाकघरकी इतनी ऊंची सीढियां मुझे भी चढाएगी क्या! मेरी अच्छी सखी, तू जा, मैं बहुत थक चुकी हूं... और हां....
'क्या?' मालती ने उत्सुकता से रेखा के मुख की ओर देखा।
'मैं सामने बुक-स्टाल पर ठहरती हूं, जल्दी आना..'
पर भागना नहीं..' मालती अपनी किताबें रेखा को पकड़ाकर तेजी से सीढ़ियां चढ़ गई और रेखा सडक पार कर सामने के बुक-स्टाल पर जा रुकी। बटुआ खोलते हुए उसने दुकानदार से कहा-'एक साप्ताहिक मुझे भी देना...'
'साप्ताहिक समाप्त हो गया बीबीजी..'
'अभी तो तुमने इन साहब को एक प्रति दी है।'
'वही अन्तिम था...।'
जैसे ही उसने एक सरसरी दृष्टि उस खड़े व्यक्ति पर दौड़ाई वह कांप-सी गई। यह वही अजनबी था जो उस रात आश्रय लेने उसके घर आ छिपा था और अब मुस्कराता हुआ उसकी ओर देख रहा था। हाथ का साप्ताहिक बढ़ाते हुए उसने नम्रता से कहा-’आवश्यकता हो तो यह साप्ताहिक सेवा में हाजिर है..'
‘नहीं...' क्रोध में भृकुटि पर बल लाती हुई वह बोली और पांब बढ़ाकर सडक की ओर जाने लगी। उसने अनुभव किया जैसे वह व्यक्ति भी उसके पीछे-पीछे आ रहा है। थोड़ी दूर जाकर वह रुक गई और मालती की प्रतीक्षा करने लगी। वह अभी तक डाकघर से नहीं लौटी थी।
'घूमकर उसने देखा। वह अजनबी-भी उसके पीछे आकर रुक गया है। सडक पर काफी लोर्गों के होने के कारण वह.. घबराई नहीं। सक्रोध बोली-’तुम यूं मेरा पीछा क्यों कर रहे हो?'
'देखिए, उस रात को जो भ्रम आपको हो गया था उसे दूर करना चाहता हूं...'
'क्या लेना है आपको भ्रम दूर करके?’
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