ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
दस
एक प्राचीन खंडहर जैसे सराय के कमरे में मोहन शीघ्र कपड़े बदलकर वाहर जाने की तैयारी में लगा हुआ था। दर्पण उठाकर उसने अपनी आकृति देखी। हठात् उसके होठों पर मुस्कान दौड़ गई।
एक-एक कर उसके मार्ग के सब कांटे दूर हो चुके थे! पुलिस, तबस्सुम. हार... आदि-आदि। वह अब इस टूटी-फूटी सराय के कमरे में बैठा पहले की अपेक्षा कहीं अधिक प्रसन्न था। उसने खिडकी से गगन में विहार करते पूर्णिमा के चांद को देखा और स्वयमेव बड़बड़ा उठा-’अब रेखा होगी, मैं हूंगा और होगी उसकी अगाध सम्पत्ति।'
वह भली प्रकार समझता था कि आधी रात को इस तरह अकेली किसी युवा लड़की का घर से निकलना कठिन है। वह चाहता, था कि अन्तिम मंजिल पर पहुंचने से पहले ही रेखा निर्बलताओं पर अधिकार कर ले। उसमें साहस का संचार हो जाए।
उधर रेखा खिड़की में खड़ी मोहन की प्रतीक्षा कर रही थी। रात सरकती जा रही थी। सर्वत्र शान्ति थी। न जाने आज रेखा का मन क्यों एक अज्ञात भय से घुटा जा रहा था। आहट हुई। रेखा ने झांककर देखा। सामने माली आता दिखाई दिया। हटकर वह पर्दे के पीछे हो गई। माली खिड़की के सामने से होता हुआ बाहर फाटक तक जा पहुंचा। जैसे ही वह फाटक को बन्द करने लगा, उसकी दृष्टि उस छाया पर पड़ी जो नाली की बगल से धीरे-धीरे कोठी की ओर बढ़ती आ रही थी।
पहले तो माली ने चिल्लाकर सबको जगा देना चाहा, पर अचानक कुछ सोचकर चुप रह गया। दबे पांव वह उसका पीछा करने लगा। वह छाया बढते-बढते रेखा के कमरे की खिड़की तक पहुंच गई। माली झट से खम्भे के पीछे छिपकर उसकी गतिविधि का निरीक्षण करने लगा।
इस घोर सन्नाटे में जब उसने फुसफुसाने जैसी आवाज सुनी कि - मोहन, शीघ्र भीतर आ जाओ - तो उसने रेखा को खिडकी में खड़ा देखा।
वह खिड़की फांदकर भीतर पहुंच गया। रेखा ने झट से खिड़की बन्द कर ली। मोहन धीरे से कान के पास फुसफुसाया--- ’मैंने समझा, कहीं सो गई हो।’
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