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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

रेखा ने क्रोध से भृकुटि चढ़ा ली और माली से बिना कुछ कहे-सुने भीतर चली गई। माली के व्यंग्य से उसका हृदय भया- तुर हो उठा था।

उसने भीतर आकर एक दीर्घ श्वास खींचकर पर्दा उठाया। बाहर देखा, माली अभी तक वहीं खड़ा था। उसके होठों पर भयानक क्रोध थिरक उठा।

दूसरी शाम को वातावरण साफ न था। आंधी और तूफान का जोर वढ़ रहा था। जब रेखा देर तक घर न पहुंची तो राणा साहव अधीर हो उठे। उन्होंने माली को बुलाया और तेजी से बरामदे का चक्कर काटने लगे।

'आपने बुलाया है सरकार....। माली ने आते ही पूछा। ‘हां, रेखा अभी तक कॉलेज से नहीं आई। आंधी जोर पकड़ रही है... जरा जाकर देख तो, मुझे भय-सा लग रहा है।'‘अधीर न होइए बाबूजी, अब रेखा बिटिया बच्ची नहीं है। ‘परन्तु मां-बाप के लिए तो वह सदा बच्ची ही रहेगी।' राणा साहब ने यह बात कुछ गर्म होकर कही।,

'मालिक। आप शायद नहीं जानते, इससे भी भयानक तूफान जाने वाला है।'

'मैं समझा नहीं।' वह आश्चर्य से बोले।

'जवानी का तूफान... बह आपकी दृष्टि में बच्ची है, पर दूसरों की दृष्टि में नहीं।'

मैं जव तक जीवित हूं, दुनियां वालों को क्या हक है कि दूसरे का घर झांके?'

'मैंने आपका नमक खाया है बाबूजी। मेरा कलेजा टूटा जा रहा है।'

'जो कहना हो स्पष्ट कहो। पहेलियां मुझे पसन्द नहीं।'

‘मालिक ! कोई आवारा आपकी इज्जत पर डाका डालने की फिराक में घर का चक्कर लगाने लगा है।'

'माली होश में तो हो?'

‘जी सरकार ! मैंने उसे कई बार कोठी के गिर्द चक्कर लगाते देखा है।'

'तो उसकी टांगे क्यों नहीं तोड़ दीं? वह गरजकर बोले। ‘परन्तु छोटी रानी....।' माली अभी कुछ कह भी न पाया था कि चुप हो गया और घबराहट से फाटक की ओर देखने लगा, जहां से अभी-अभी पुस्तकें सम्भाले रेखा ने प्रवेश किया था।'

जब वह पास आई तो राणा साहव ने मुंह मोड़ लिया। आज उसके नमस्कार का उत्तर भी न मिला वह चुपचाप भीतर चली गई। वह क्रोध को पीते हुए बोले- 'मैंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि मेरी सन्तान का रक्त भी रंगत वदल सकता है।'

'मालिक ! जमाने की हवा ही कुछ ऐसी है।'

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