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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'घर में कोई नहीं है। अकेला घर छोड़ना क्या ठीक है? ’

‘तुम हर दिन कोई-न-कोई बहाना बना लेती हो।'

'आज का बहाना आखिरी समझो।

'तो एक वचन दो...।'

'क्या?

'परसों रात पूर्णमासी है न?'

'हां है तो... पर तुम चाहते क्या हो?

'नदी की सैर!'

'परन्तु रात में जाने की आज्ञा बाबा नहीं देंगे।'

'आज्ञा की आवश्यकता क्या है? जब सब सो जाएं तो चुपके से चली आना।'

'नहीं मोहन ! बाबा ने देख लिया तो जीवित नहीं छोड़ेंगे।'

'बहुत् डरपोक हो रेखा तुम... मुझे ऐसा लग रहा है जैसे तुम्हारा प्रेम अधूरा है। यदि तुम्हारा मुझ पर सच्चे दिल से प्यार होता तो तुममें वह शक्ति होती कि तुम अति भयंकर तूफान और आंधी से भी न डरतीं। मुझे देखो, मैं न दिन देखता हूं न रात, तुम्हारे लिए आँख मूंदकर चला आता हूं। उस समय मृत्यु से भी टक्कर लेने की शक्ति मुझमें आ जाती है। साहस करो रेखा - हमें दुनिया देखनी है...।'

'पर मर्यादा की सीमा को तोड़ने का साहस मुझमें नहीं मोहन..।'

'नहीं रेखा!... तुम्हें मेरी यह बात माननी ही होगी, तुम्हें मेरे प्रेम की सौगन्ध जो न आओ तो...।'

'अच्छा, प्रयत्न करूंगी।' कहने को तो कह दिया उसने, पर दिल जोरों से धड़क उठा।

रेखा अपने आप में खोई बरामदे में आई। सहसा कोने में रखा फूलों का गमला गिर पडा और तड़ाक से फटने की आवाज आई। वह चौंक गई। मुड़कर देखा, सामने माली खड़ा उसे देख- कर मुस्करा रहा था।

'शायद छोटी रानी डर गई, पत्थर तो कुत्ते को मारा था, पर निशाना चूक गया।'

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