लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे

राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

299 पाठक हैं

मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

मोहन भी प्रत्युत्तर में मुस्करा दिया।

रेखा दौड़कर मोहन की बाहों में समा गई। वह रेखा के शरीर की ऊष्णता पाकर रोमांचित हो उठा। उसने अपनी भुजाओं का घेरा कस लिया। रेखा ने कोई विरोध नहीं किया। वह निश्चल बांहों में कसी पड़ी रही। प्यार का वेग समाप्त होते ही वह छिटककर अलग जा खड़ी हुई तो मोहन बोल उठा-’रेखा, आज तो प्यार का पात्र स्वयं छलक उठा है।'

'वह कैसे?'

'पहले तो कभी तुमने इतनी व्याकुलता प्रकट नहीं की थी।'

‘मोहन, आज ऐसा जान पड़ता है, जैसे मैंने तुम्हें बड़ी तपस्या के बाद पाया है.. में तो बेतरह डर गई थी।’

'मैं समझा नहीं...'

'अभी-अभी तिवारी चाचा आए थे...'

'क्या कह्ते थे?'

'कहते थे कि हार का चोर पकड़ा गया, किन्तु उसने हथ- कड़ी से मृत्यु को अधिक पसन्द किया।'

'तो इसमें डरने की क्या बात थी?'

वह मौन उसकी कमीज के बटन से खेलने लगी।

'तुमने यह सब मेरे विषय में सोच लिया था क्या? ’

'नहीं.. नहीं... ऐसी बात नहीं।'

'मैं इतना कायर नहीं रेखा।' मोहन ने मुस्कराते हुए कहा और जेब से सोने का वैसा ही नकली हार निकालकर रेखा के गले में पहना दिया। रेखा हार देखते ही प्रसन्नता से उछल पडी और गले से उतारकर उसे चूम लिया।

'तो जीत आखिर तुम्हारी ही हुई।'

'हां रेखा.... अब तो विश्वास आया कि मैं चोर नहीं।’

'ऊहुं...'

'किसी का मन तो चुराया ही है।’

'नटखट कहीं की...।' मोहन उसके बाल पकडकर झकझोरते हुए बोला-’कहां चलीं?'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book