ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'तुम आओ और मैं सो जाऊं, यह कैसी वात करते हो? मैं तो कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूं।'
'सच रेखा।'
'विश्वास न हो तो इन आंखों में झांककर देखो, कितनी थकान है?'
'मुझे तो इनमें एक ऐसी मस्ती, एक ऐसा आकर्षण दिख रहा है कि शायद मैं इन्ही में न समा जाऊं।' मोहन ने उसकी ठुड्डी को ऊपर उठाते हुए कहा। रेखा ने उसका हाथ हटाकर आंखें नीची कर लीं।
'क्यों? सरमा गईं?'
'यह तो स्वाभाविक है पर आंखें इसलिए नीची कर ली हैं कि कहीं आंखों की गहराई में तुम डूब न जाओ।'
इस डूबने में ही तो जीवन है।' अच्छा चलो, शीघ्र निकल चलें।'
'कुछ समय और ठहर जाओ.. माली अभी सोया नहीं है।'
'ओह..! ’
'दोनों मौन हो कुछ देर तक एक-दूसरे को देखते रहे। यह बार-बार का देखना मौन आमन्त्रण था। दोनों प्यासे थे जब प्यास बढ़ी तो दोनों एकाकार हो गए। दोनों के दिलों की धड़कने इस तरह सुनाई देने लगीं जैसे शांत बहते पानी में टप-टप की ध्वनि।
सहसा दरवाजा खटकने की आवाज आई। दोनों सिर से पांव तक कांपकर अलग हो गए। भय से दोनों थरथराने लगे। मोहन तेजी से खिड़की की ओर लपका, परन्तु रेखा ने उसका हाथ पकड़कर इस तरह भागने के लिए मना किया।
दरवाजे पर पुनः खटका हुआ। मोहन अत्यन्त घबरा गया। कोई चारा न देख सामने की अलमारी में जा छिपा। रेखा ने डरते-डरते बत्ती जलाई और एक विहंगम दृष्टि उस बन्द अलमारी पर डालकर द्वार खोल दिया।
'ओह... बाबा...?' आगे कोई शब्द न निकला उसके मुंह से।
'क्या सो रही थीं?'
'जी....।' राणा साहब के मुख पर भयानक गम्भीरता थी। उन्होंने निरीक्षक दृष्टि से चारों ओर देखने हुऐ कहा--’शाम को आफिस से एक फाइल लाया था... न जाने कहां रख दी है।'
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