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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'तबस्सुम...' मोहन ने प्यार भरे स्वर में पुकारा और उसकी आंखों में उमड़ते हुए तूफान को देखकर झट से उसे अपने बाहुपाश में कस लिया। तवस्सुम सिसकियां भरकर लड़खड़ाते स्वर में बोली- 'मोहन... पुलिस को.. मुझे.... रेखा को.... और सबको धोखा दे सकते हो, परन्तु याद रखना, सच्चे प्रेम को तुम कभी धोखा न दे पाओगे।'

मोहन उसके इन छिपे नश्तरों की चुभन को सहन न कर सका और उसे अपने शरीर से अलग कर शीघ्रता से बाहर चला गया।

आज’रोशन थियेटर' दर्शकों से खचाखच भरा था। कहीं तिल रखने को स्थान नहीं था। स्टेज के साथ वाली पहली पंक्ति में रमेश और रेखा बैठे हुए थे। रेखा के साथ वाली सीट खाली थी थोड़े समय बाद वह उस खाली सीट को देख लेती। रमेश उसकी बेचैनी भांप रहा था। रेखा भी देख रही थी कि रमेश की दृष्टि रह-रहकर उस पर उठ जाती है। जब कभी दोनों की निगाहें टकरातीं, तो रेखा मुस्कराकर उसके संशय पर पर्दा डालने का व्यर्थ प्रयत्न करती।

कुछ समय पश्चात जब रेखा ने चोर दृष्टि से आते मोहन को देखा तो सावधान होकर बैठ गई। उसने रमेश की आंख बचाकर अपना पर्स खाली सीट पर रख दिया और घुल-मिलकर उससे बातें करने लगी।

'शायद यह पर्स आपकी है।'

दोनों यह आवाज सुनकर मोहन की ओर देखने लगे, मोहन ने कनखियों में रेखा को देखा, जो आज राजसी परिधान में, सुसज्जित बैठी थी।

'धन्यवाद...' कहते हुए रेखा ने अपना पर्स उठा लिया। कुछ क्षण मोहन दोनों की ओर तिरछी नजर से देखता रहा, रेखा के साथ रमेश को देखकर उसके मन में द्वेष की लहर दौड़ गई। पर इसलिए मन-ही-मन अपनी इस सफलता पर वह मुस्करा रहा था कि आज उसकी प्रेमिका किस चतुराई से उसके पास खिंची चली आई है।

रमेश ने जब मोहन को अपनी ओर बार-बार देखते पाया तो मुंह बना लिया। मोहन भांप गया। झट से बात बनाते हुए बोली- ’ऐसा जान पडता है, मैंने आपको पहले भी कहीं देखा है?'

'आप भूल रहे हैं मैंने तो आपको पहले कभी नहीं देखा।' रमेश ने गम्भीरता से उत्तर दिया।

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