ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'सम्भव है.....? प्रायः मिलती-जुलती सूरतों से भी धोखा हो जाया करता है.. आप ही जैसे मेरे एक मित्र, मिस्टर रमेश हैं।’
'रमेश...' रेखा के मुह सें अकस्मात् निकल गया।
'मेरा नाम भी तो रमेश ही है...'
'आप कस्टम ऑफीसर तो नहीं... ’
'जी, परन्तु आपने कहां देखा है मुझे?
'कुछ ही दिनों की बात है कि हम एक गाड़ी में सहयात्री थे।
'ओह ! हो सकता.. मेरी याददाश्त कमजोर है.. रेखा-- तुम जरा इस सीट पर आना।'
रमेश ने रेखा की सीट बदल ली और स्वयं मोहन के पास आ बैठा। मोहन का फेंका हुआ पांसा उलटा पड़ा। परन्तु एक सफल जुआरी की तरह संयम को नहीं छोड़ा। सिगरेट-केस से एक सिगरेट निकालकर उसकी ओर बढ़ा दिया।
'धन्यवाद.. मैं पीता नहीं...'
‘शायद यह आपकी धर्मपत्नी हैं।' मोहन अनजान बन गया।
'नहीं-नहीं... ऐसी बात नहीं।'
मोहन ने तिरछी दृष्टि से रेखा को देखा जो पत्नी का नाम सुन क्रोध से लाल-पीली हो गई थी? बोला-’तब बहन हो सकती है।'
'अजीब व्यक्ति हैं आप...' रमेश झुंझलाकर बोला।
'ओह, तो मेरे दोनों अनुमान गलत निकले।'
'बिलकुल गलत..'
'क्षमा कीजिए.. मैंने तो...'
'अनुमान लगाया था, क्यों?... रेखा तुम अपनी सीट पर आ जाओ।'
ज्योंही रेखा उठकर अपनी पहली सीट पर आने लगी तो वह पुनः बोला-’नहीं तुम वहीं ठीक हो, मेरा विचार है, वहां से तुम डांस अच्छी तरह देख सकोगी, क्योंकि वह सीट ऊंची है और आरामदेह भी।
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