ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
|
9 पाठकों को प्रिय 299 पाठक हैं |
मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'नहीं तबस्सुम ! तुम्हारे कर्त्तव्य का साधारण-सा भाग।’आज जब मैं जीवन की अन्तिम मंजिल पर पांव रखने जा रही हूं तो तुम्हें अपने कर्त्तव्य का ध्यान आया तो सही।
'ओज यह कैसी उखड़ी-उखड़ी बातें कर रही हो? मोहन ने रुमाल जेब से निकालकर उसके आंसू पोंछ डाले।
'बह जाने दो इन्हें मोहन ताकि जवानी का यह उन्माद आंखों द्वारा ही बह जाए और शेष कोई चाह भटकती न रह जाए।' उसी समय घड़ी ने आठ वजाए और दोनों की दृष्टि ने उसकी सुइयों को छुआ। तवस्सुम आंसुओं से धुल गए मेकअप को फिर संवारने लगी। मोहन प्यार जताते हुए उसके बालों से खेलने लगा और बोला-’आज कौन-सा नाच तैयार है?
'मोहन! आज का नाच वह नाच होगा, जो मैंने कभी न नाचा होगा - किसी ने देखा न होगा। वह नाच चलते-फिरते गानों पर आधारित न होकर मन की गहराइयों तक पहुंचने वाला होगा। नाच के अंत में लोगों के मुंह से वाह-वाह नहीं निकलेगी निकलेगी आह की फूत्कार! तालियां नहीं बजेंगी, बज उठेंगे उनके ह्दय-तन्त्री के तार..' -
'तबस्सुम.. कहीं तुम.. ’
'घबराओ नहीं.. तुम्हें धोखा नहीं दूंगी..... सबको अपनी श्रेणी में बैठाने का प्रयास न करो।'
मोहन ने आज तवस्सुम के व्यंग्य पर बुरा नहीं माना। वह जानता था कि जो वात अरसे से उसके मन में उबाल ले रही थी, आज होठों पर आकर ही रही।
तबस्सुम ने अपनी अलमारी की चावियां मोहन को दे दीं, जिसमें उसके पैसे और गहने रखे थे। मोहन ने उन्हें अमानत के तौर पर उसके लौटने तक अपने पास रखने का वचन दिया और सहारा देकर उसे उठाया।
'एक बात मानोगे?'
'क्या? ’ आश्चर्य से चौंककर मोहन ने पूछा।
'एक बार मुझे उसी प्यार भरी दृष्टि से देखो, जिस दृष्टि ने कभी मुझे तुम्हारा बना दिया था।'
|