ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'मुझे स्वीकार है।’
'और वाबा की आज्ञा...'
'यह भी मुझ पर छोड़ दो।'
लज्जा से धरती में गड़ी दृष्टि उसने ऊपर उठाई और धीरे- धीरे गाना आरम्भ कर दिया। रमेश ने अनुभव किया कि उसके स्वर में पहले जैसी मधुरता, चुलबुलाहट और मस्ती नहीं है। तूफान आने के पहले जैसी गम्भीरता है।
नाच की रात अपने कमरे में तबस्सुम श्रृंगार-मेज के सामने बैठी, अपने रूप-सौन्दर्य पर अन्तिम पफ फेर चुकी, तो उसने मेज के ड्राअर में से एक छोटी-सी शीशी निकाली और उसमें से एक तरल पदार्थ अपनी खुलने वाली अंगूठी में उड़ेल लिया। तभी उसकी आखों से दो-चार बूंद आंसू गिरकर कपडों में समा गए। दरवाजे पर आहट हुई। उसने झट से वह शीशी छिपा ली और आंसू पोछ डाले। मुड़कर देखा तो मोहन खड़ा था।
'ओह... तुम...'
'आज तुम्हारी आंखों में आंसू।’
'आंसू!... कहां?.. नहीं तो।’
कहने को तो कह दिया उसने, पर आंखों में जबरदस्ती कैद किए गए आंसू क्या कभी किसी के रोके रुके हैं। न चाहते हुए भी उसकी आंखें पुनः बरस पड़ीं।
मोहन अवाक् रह गया। विश्वासघाती कठोर-हृदय व्यक्ति क्या जाने एक औरत की अन्तर-पीड़ा। वह घबराकर बोला - ‘क्या बात है तवस्सुम? ये आंसू असमय में क्यों? ’
'इसलिए कि आज का नाच मेरे जीवन का अन्तिम नाच होगा।'
'ऐसी अशुभ बात न निकालो। यह क्यों भूलती हो कि तुम भी मेरी कुछ हो, यह सच मानो कि रेखा के बाद यदि मेरा कोई है तो वह तुम हो! तुम्हें दुःखी करना मेरा ध्येय नहीं, पर इसके बिना दूसरा चारा भी नहीं कि तुम मेरा नाम न बताओ। तुम्हें यह वचन देता हूं कि रेखा के यहां से मिले धन का आधा भाग तुम्हारा होगा।'
'मेरे त्याग का मूल्य बस इतना ही.. ’
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