ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
जव शम्भू थैला निकालकर फाटक से बाहर हो गया तो वह अपने आपको स्वतन्त्र पक्षी की तरह अनुभव करने लगी। आज पूरे घर पर उसी का राज था। वह रेडियो के पास खड़ी हुई। कुछ क्षण उसी अवस्था में न जाने क्या-क्या सोचती रही। एका- एक रेडियो का स्विच ऑन कर दिया। मधुर स्वर उस एकान्त प्रकोष्ठ में गूंज उठा।
स्वर के साथ वह भी गुनगुनाने लगी अपने स्थान से उठ- कर स्वर के ताल पर वह थिरकने लगी आज उसका मन अति प्रसन्न था। न जाने हृदय के अन्तस्थल में आज वह किस प्रकार की आश्चर्यजनक मिठास का अनुभव कर रही थी। वह झूमती और गुनगुनाती अपने कमरे से गोल कमरे में आई और सोफे पर बिखरी हुई पुस्तकें सम्भालने लगी।
उसी समय बाहर के दरवाजे से रमेश भीतर आया। रेखा एकाएक ही रुक गई और सिर नीचा किए, पैर के अंगूठे से पक्के फर्श पर अर्धचन्द्र बनाने लगी। कमरे में सहसा इस तरह चुप्पी छा गई जैसै अचानक सिनेमा हॉल में चलती फिल्म कट जाए और दर्शक देखते रह जाएं।
'क्यों, क्या मेरा आना ठीक कहीं लगा? रमेश ने मौन को तोड़ते हुए पूछा।
'नहीं तो'.
'फिर गाना क्यों बन्द कर दिया?
'दिल ही तो है।'
'ठीक है! दिल संभालो! मैं चला।'
'पर क्यों? ऐसा क्या अपराध हुआ मुझसे? ’
'अपराध यही है कि तुमने गाना बन्द कर दिया।' मुस्कराते हुए रमेश ने कहा।
'यदि गाने लगूं तो अपराध क्षमा हो जाएगा।'
'अवश्य..? ’
'लेकिन एक शर्त है।’
'वह क्या?’
'परसों रात मेरे साथ थियेटर चलना होगा... ’
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