ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'इसलिए कि वह अपना समय बिता चुके हैं। उन्हें खेल- तमाशे देरवते-देखते अपच हो गया है। उस अपच को वह छोटों पर अघिकार जमाकर ठीक करते हैं - रोकते हैं - सीख देते हैं, परन्तु अपनी जवानी के दिन भूल जाते हैं। दूसरों की जवानी देख उन्हें रश्क होता है। रेखा यह न भूलो कि मौज-मजे के दिन जवानी में ही हैं। यह मोहन नहीं, मोहन का कलुषित हृदय बोल रहा था-’कुछ निर्णय तो करना ही होगा रेखा। मुझे थियेटर में जाना ही है और तुम्हारे बिना मेरा मन नहीं लगेगा। मेरी अच्छी रेखा, कुछ तो उपाय निकालना ही होगा।'
क्षण-भर रेखा ने कुछ सोचा फिर एकाएक बोली- 'एक उपाय है।’
'वह क्या?'
'नये अतिथि के साथ जाने की शायद आज्ञा मिल जाए।'
‘परन्तु मुझे क्या लाभ हुआ, वही मनहूस सूरत लिए बैठा रहूंगा।’
'देखो, तुम तीन सीटें रिजर्व करवा लेना दो मेरे लिए और एक अपने लिए.. इस प्रकार हम इकट्ठे ही बैठ जाएंगे। किसी को पता भी न चलेगा।'
'परन्तु प्रस्तर-मूर्तियों की भांति... चलो, यूं ही सही।’
दोनों इस अनोखी योजना पर मुस्कराते हुए अपने मार्ग पर चल पडे। रेखा के मन में गुदगुदी हो रही थी और मोहन अपने प्रेम-जाल को दिन-प्रतिदिन मजबूत होता देख फूला नहीं समा रहा था।
रेखा ने गोल कमरे में प्रवेश किया और असावधानी से सब पुस्तकें सोफे पर फेंक दीं। उसका नौकर शम्भू उसका यह विचित्र रंग-ढंग देखकर मुस्करा पड़ा और वोला-’आज देर से आईं बीबीजी मैं तुम्हारा ही मार्ग देख रहा था।'
'किसलिए?'
'बाजार जाना है.. सौदा-सुलफ खरीदने।'
'और लोग कहां हैं?'
'बाबा आए थे, मांजी को लेकर डाक्टर के यहां चले गए हैं।’
अन्यमनस्क भाव से शम्भू के हाथ से चाभियां ले वह दूसरे कमरे में चली गई।
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