ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
|
9 पाठकों को प्रिय 299 पाठक हैं |
मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'नदी... चिडियाघर... परन्तु आपके लिए तो यह सब-कुछ नहीं के बराबर है।'
'नहीं रेखा! ऐसी बात तो नहीं, मैं इन चीजों के समीप होते हुए भी इनसे दूर हूं। काम की इतनी अधिकता रहती है कि इन बातों के लिए मुझे अवकाश ही नहीं मिलता।'
'आप करते क्या हैं?'
'सरकारी नौकरी'.. कलकत्ता डिवीजन का कस्टम आफीसर हूं... काफी व्यस्त जीवन है।'
'किन्तु कभी-कभी इन्सान को कुछ क्षण अपने मन बहलाव के लिए भी निकालने चाहिए।'
'फिर तो तुमने भी अपने मन-बहलाव का कोई साधन बना रखा होगा।'
'जी...' रमेश के इस आकस्मिक प्रश्न से रेखा सिहर उठी। हृदय का स्पन्दन बढ़ गया। भयातुर हिरणी की तरह वह उठी और भाग जाने को हुई। रमेश ने टोक दिया- 'कहां चल दीं?'
‘बातों-बातों में भूल गई कि अभी बाबा को भी दूध देना है।'
रेखा तेजी से द्वार की ओर बढ़ गई। कमरे से बाहर होने के पूर्व उसने मुड़कर देखा तो रमेश को अपनी ही ओर स्थिर दृष्टि से देखते पाया। जव दोनों की आंखें एकाकार हुईं तो रेखा को अपनी घवराहट दबाकर बोलना ही पड़ा- ‘देखिए.. दूध ठंडा हो रहा है।'
जिस दिन से रमेश कलकत्ता से आया था, राणा साहव के घर का रंग-रूप ही बदल गया था। प्रत्येक की मुखाकृति पर प्रसन्नता थिरकने लगी थी। नए अतिथि के सत्कार में सभी व्यस्त और तत्पर दिखाई पड़ते थे।
एक शाम जब सब चाय की टेबल पर बैठे चाय की चुस्की ले रहे थे, उसी समय सीटी में एक मधुर संगीत की ध्वनि सुनाई पड़ी। रेखा चाय का प्याला छोड़ चौकन्नी हो गई। वह उस स्वर-लहरी को ध्यान से सुनने लगी। सभी की दृष्टि एक साथ उस पर उठ गई।
'शायद वह सीटी का संगीत तुम्हें बहुत अच्छा लग रहा है, क्यों?' मौन भंग करते हुए रमेश ने पूछा। अपनी धुन में मस्त रेखा इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार न थी। जैसे स्वप्न से जागी हो, इस तरह चौंककर उसने अपने मनोभावों को चाय की चुस्की में डुबो दिया।
|