ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
शीघ्रता से चाय गले के नीचे उतार वह उठ खड़ी हुई।
'कहां चली? ऐसी असामयिक बेचैनी क्यों?' रमेश ने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुए पूछा।
'अभी आती हूं।' और वह तेजी से द्वार की ओर जाने लगी? तभी उसके कानों में पिता का नम्र स्वर सुनाई पड़ा- ‘बेटी, शायद तुम शिप्टाचार भूल गई हो।'
'नहीं बाबा... वह घबराहट को मुस्कराहट में बदलकर घूम पड़ी और आकर कुर्सी पर बैठ गई। सीटी का स्वर बन्द हो चुका था।
ठीक इसी समय इन्स्पेक्टर तिवारी ने कमरे में प्रवेश किया। राणा साहब ने अपनी कुर्सी से उठते हुए उनका स्वागत किया-’आइए तिवारीजी, आप तो ठीक समय पर आ पहुंच्रे हैं? तिवारी ने एक खाली कुर्सी खींच ली। वैठकर मूंछों पर ताव देते हुए बोले-’पुलिसवाले प्रायः ठीक ही समय पर पहुंचा करते हैं।’
सबके सब उसकी इस बात पर हंस पड़े। मन न रहते हुए भी रेखा ने इस हंसी में योग दिया। उसके मन में व्याप्त बेचैनी को कोई नहीं भाप सका। उसकी आंखों में, हृदय में और मस्ति- ष्क में बस एक ही विचार चक्कर लगा रहा था। वह था मोहन, जो शायद पिछवाड़े की दीवार के साथ खड़ा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था।
चाय के पश्चात् रमेश द्वारा घूमने का प्रोग्राम बना। रेखा को यह प्रोग्राम आकस्मिक मृत्यु-सा लगा। वह मन ही मन जाने क्या-क्या बड़बड़ाई, फिर एकाएक बाबा के पास आकर बोली- ‘बाबा, यदि मैं आज न जाऊं तो...'
'क्यों? क्या बात है? तबियत तो ठीक है न? ’
'जी ठीक है? कालेज के बहुत से काम ऐसे पड़े हुए हैं, उन्हे पूरा कर लेना अत्यन्त आवश्यक है एकान्त पाकर शीघ्र समाप्त कर लूंगी।'
रात से अधिक एकान्त कहां मिलेगा? रात दो घंटे अधिक जाग लेना, बस मैदान साफ।' राणा साहब के बोलने के पूर्व ही रमेश ने उसकी बात का उत्तर दे दिया। बाबा ने मुस्कराते हुए रमेश का समर्थन किया। वह पिंजरे में बन्द पक्षी की तरह छट- पटाकर रह गई। कोई वश नहीं था, साथ देना ही पडा। उसी दिन रात में जब रेखा अपने कमरे में बैठी पढ़ने में तल्लीन थी कि अचानक सीटी की आवाज सुनाई पड़ी। उसने हाथ की पुस्तक टेबल पर रख दी।
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