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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

सात

रात को लागभग ग्यारह बजने को थे। रेखा दबे पांव गोल कमरे को पार कर अतिथि-गृह की ओर बढ़ी। हाथों में दूध का गिलास उठाए उसने भीतर प्रवेश किया। रमेश सामने बैठा कमीज में बटन टांक रहा था। उसे देखते ही वह बोला- 'आओ रेखा....’

रेखा उत्तर में मुस्कराई और गिलास सामने मेज पर रख दिया।

'यह क्या?'

'दूध...। मां ने कहा है, आप हमेशा सोते समय पीते हैं।' ‘चाची को शायद अब भी मैं छः वर्प का बच्चा ही दिखाई देता हूं।'

'बड़े-बूढ़ों के सामने हम बच्चे नहीं दिखाई देंगे तो क्या बच्चों के पिता दिखाई देंगे, परन्तु... यह क्या हो रहा है?’

'बटन लगा रहा हूं।'

'कह दिया होता... टंक जाता, कष्ट करने की क्या जरूरत थी?'

रमेश ने कमीज रेखा के हाथों में पकड़ाते हुए कहा- ‘साधारण काम तो इन्सान को स्वयं ही कर लेना चाहिए। छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरों का मुंह देखना क्या अच्छी बात है?

'विचार तो शुभ है, परन्तु यह प्रश्न तब उठता है जब करने वाले का अभाव हो।

'यहां तो तुम कर दोगी... घर पर कौन है जो करेगा?

'क्या आप अकेले हैं?'

'केवल पिताजी हैं... मां को संसार छोड़े समय बीत गया.. रहे वहन-भाई और यह अकेली जान।'

'नौकर-चाकर तो होंगे ही।'

'हैं, पर सीमित।' संक्षिप्त उत्तर दिया रमेश ने।

'यह लीजिए, दो मिनट के काम में आपने घंटा-भर लगा दिया।’

रेखा ने कमीज पकड़ाते हुए सरसरी निगाह से रमेश को देखा।

'इतना शीघ्र..? रमेश उसकी आखों में आंखें डालकर मुस्कराया।

'जिसका काम उसी को साजे.. ’ रेखा ने भी मुस्कराकर उत्तर दे दिया।

'अच्छा जी! मैं हारा, तुम जीतीं। यह तो बताओ, इस शहर में सैर-सपाटे का कोई स्थान है या नहीं।'

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