ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'दीदी... दीदी, वह आ गए...' नीला दौड़ती हुई उसके कमरे में जो आई तो रेखा पर छाया उन्माद जाता रहा। वह झपटकर उसका चुम्बन लेती हुई बोली-’अरी कौन?'
'जिन्हें बाबा लेने गए थे।'
'अच्छा. तू चल, उन्हें बातों में लगा, मैं अभी आई।
शीघ्र ही अपने केश गूंथकर वह नीला के पीछे गोल कमरे की ओर बढ़ी। राणा साहब और मां एक अपटू-डेट सुन्दर युवक से वातचीत कर रहे थे। भीतर प्रवेश करते ही वह पल-भर के लिए रुक गई, ताकि उनका ध्यान उसकी ओर हो जाए। दृष्टि मिलते ही उसने हाथ जोडकर नमस्कार किया। राणा साहब ने मुस्कराते हुए रेखा की पीठ थपथपाई और बोले- ‘यह है मेरी बेटी रेखा... जिसे बचपन में तुम सदा तंग किया करते थे।'
'ओह... बिल्ली....’ युवक ने ध्यान से उसकी ओर देखते हुए कहा।
कली अब खिलकर फूल बन चुकी थी। रेखा अपना बचपन का नाम सुनकर लजा गई और मुख आरक्त हो गया।
'अभी तक याद है तुम्हें क्या?' मां ने निस्तब्धता तोड़ते हुए कहा।
'चाची, यदि बचपना याद है तो बिल्ली कैसे भूल सकती है?'
रेखा उठकर दूसरे कमरे में जाने लगी तो राणा साहब ने रोकते हुए पूछा--'कहां चली?'
'स्नान का प्रबन्ध कर दूं।'
'अभी शीघ्रता क्या है। यात्रा से आया है, दो घड़ी आराम तो कर ले।'
सबके सब बैठ गए। रेखा भी लजीली लता-सी सामने के सोफे पर बैठ गई। नीला राणा साहब की गोद में बैठते हुए बोली-- 'आपका शुभ नाम?'
उसके इस प्रश्न पर सब हंस पड़े। युवक ने अपनी हंसी रोकते हुए नीला को गोद में उठा लिया और बोला- 'बाबा को नाम बताने का ध्यान नहीं रहा, तो मैं स्वयं बता देता हूं। मेरा नाम है रमेश। तुम्हारी दीदी देखी हुई थी, सोचा चलकर तुम्हें भी देख आऊं।'
सबके सब पुन: हंस पड़े। इस बार नीला ने उनका संग दिया। काफी समय तक इथर-उधर की बातचीत होती रही। कभी-कभी कोई न कोई प्रश्न रेखा पर भी आ गिरता और हर बार वह यूं चौक पड़ती, मानो कोई सुहावने स्वप्न से उसे जगा रहा हो। कांपकर हर प्रश्न का उत्तर वह बड़ी नम्रता से देती। कोई क्या जाने कि उस समय उसका मन कहां था। जब कभी रमेश, प्रश्नसूचक दृष्टि से उसकी मौन दृष्टि को भांपने का प्रयत्न करता तो वह कांप-सी जाती।
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