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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'आज इतनी देर से..... ’ रेखा ने रोके हुए सांस को धीरे से छोड़ते हुए पूछा।

'एक आवश्यक काम से आया था।'

'क्या?'

'वह हार चाहिए. केवल एक दिन के लिए।'

'क्यों?'

'कल मेरी मां की बरसी है। मैं चाहता हूं कि ऐसे अवसर पर मां की अन्तिम निशानी मेरे पास हो।'

'और यदि हार मेरे पास न होकर किसी और के पास हो...।'

'तो कोई बात नहीं.... मेरे पास दूसरा हार है।'

 ‘कहां?'

'यह...।' उसने उसे अपनी बाहों में समेटते हुए कहा। वह मछली की भांति तड़पकर उसकी बाहों से निकल गई और अन्धेरे में टटोलते हुए अलमारी से जाकर हार निकाल लाई। जैसे ही उसने वह हार मोहन के हाथों में दिया, दोनों के होठों पर एक रहस्यमयी मुस्कान खिल आई। मोहन ने हार लेकर उसका हाथ दबाते हुए जाने की आज्ञा ली और खिडकी फांद गया।

ज्योंही वह तेजी में बरामदे से निकला, कोने में मिट्टी का गमला नीचे गिरकर टूट गया। एक धमाका हुआ और किसी ने भारी स्वर में पूछा-’कौन है?' मोहन झट अंधेरे में लुप्त हो गया।

रेखा ने खिड़की से झांककर देखा। वह माली था जो उस छाया का पीछा कर रहा था। उसने अपनी घबराहट को मन की शिला के नीचे दबाते हुए माली से पूछा--’क्या हुआ माली? ’

‘कोई छाया अभी-अभी इधर भागी है?'

'वह तो एक कुत्ता था। मैंने उस पर पत्थर फेंका था और शायद वह गमले पर जा लगा।'

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