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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'परन्तु तुम अन्धेरे में खड़ी यहां क्या कर रही हो! ’

रेखा दो-एक बार खांसकर बोली-’गले में जलन हो रही थी, जरा थूकने चली आई थी।'

'खिड़की बन्द कर लो... बड़ी ठंड है।'

माली लौट गया तो रेखा ने चैन की सांस ली और खिड़की बन्द कर दी। उसी अन्धेरे में वह जाकर विस्तर पर लेट गई।

दूसरे दिन सवेरे जब अभी राजा बाजार की दुकानें खुल ही रही थीं कि मोहन तेजी से बिहारी सेठ की दुकान पर पहुंचा और शो-केस पर खड़े नौकर से उसने पूछा- 'सेठजी कहां हैं?'

'भीतर काम कर रहे हैं....।'

नौकर अभी पूरी बात भी न कह पाया था कि बिहारी सेठ स्वयं बाहर आ गए और मोहन को खड़ा देखकर बोले- 'सुनाओ मोहन, आज इतने दिनों के पश्चात...।'

 ‘राम-राम सेठ.. याद आई और चला आया।'

'आओ, भीतर आ जाओ।'

मोहन भीतर आकर इस तरह गददी पर बैठ गया जैसे उसकी अपनी दुकान हो। दोनों ने चोर-दृष्टि से चारों ओर देखा, फिर एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्करा दिए।

'सेठ, एक जरूरी काम से आया था।’

‘कहो।'

'एक हार बनवाना है।'

'कैसा?'

मोहन ने जेब से रेखा वाला हार निकालकर सामने रख दिया। सेठ उसे अंगुलियो से छूते हुए बोला---’यह तो मेरे ही यहां का बना हुआ है।'

''तब तो बात और सरल हो गई। विलकुल ऐसा ही चाहिए।'

'झूठा या सच्चा?' बिहारी सेठ मूछों पर हाथ फेरता हुआ बोला।

'देखने वाला यह न जान सके कि झूठा कौन है और सच्चा कौन है?'

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